Book of Common Prayer
मूर्तियों से सम्बन्धित उत्सव और प्रभु भोज
14 इसलिए प्रियजन, मूर्तिपूजा से दूर भागो. 15 यह मैं तुम्हें बुद्धिमान मानते हुए कह रहा हूँ: मैं जो कह रहा हूँ उसको परखो. 16 वह धन्यवाद का प्याला, जिसे हम धन्यवाद करते हैं, क्या मसीह के लहू में हमारी सहभागिता नहीं? वह रोटी, जो हम आपस में बाँटते हैं, क्या मसीह के शरीर में हमारी सहभागिता नहीं? 17 एक रोटी में हमारी सहभागिता हमारे अनेक होने पर भी हमारे एक शरीर होने का प्रतीक है. 18 इस्राएलियों के विषय में सोचो, जो वेदी पर चढ़ाई हुई बलि खाते हैं, क्या इसके द्वारा वे एक नहीं हो जाते? 19 क्या है मेरे कहने का मतलब? क्या मूर्ति को चढ़ाई हुई वस्तु का कोई महत्व है या उस मूर्ति का कोई महत्व है? 20 बिलकुल नहीं! मेरी मान्यता तो यह है कि जो वस्तुएं अन्यजाति चढ़ाते हैं, वे उन्हें प्रेतों को चढ़ाते हैं—परमेश्वर को नहीं. 21 यह हो ही नहीं सकता कि तुम प्रभु के प्याले में से पियो और प्रेतों के प्याले में से भी; इसी प्रकार यह भी नहीं हो सकता कि तुम प्रभु की मेज़ में सहभागी हो और प्रेतों की मेज़ में भी. 22 क्या हम प्रभु में जलन पैदा करने का दुस्साहस कर रहे हैं? क्या हम प्रभु से अधिक शक्तिशाली हैं?
मूर्तियों को समर्पित भोजन
23 उचित तो सभी कुछ है किन्तु सभी कुछ लाभदायक नहीं. उचित तो सभी कुछ है किन्तु सभी कुछ उन्नति के लिए नहीं. 24 तुम में से हरेक अपने भले का ही नहीं परन्तु दूसरे के भले का भी ध्यान रखे.
25 अपनी अन्तरात्मा की भलाई के लिए बिना कोई प्रश्न किए माँस विक्रेताओं के यहाँ से जो कुछ उपलब्ध हो, वह खा लो, 26 क्योंकि पृथ्वी और पृथ्वी में जो कुछ भी है सभी कुछ प्रभु का ही है.
27 यदि किसी अविश्वासी के आमन्त्रण पर उसके यहाँ भोजन के लिए जाना ज़रूरी हो जाए तो अपनी अन्तरात्मा की भलाई के लिए, बिना कोई भी प्रश्न किए वह खा लो, जो तुम्हें परोसा जाए. 28 किन्तु यदि कोई तुम्हें यह बताए, “यह मूर्तियों को भेंट बलि है,” तो उसे न खाना—उसकी भलाई के लिए, जिसने तुम्हें यह बताया है तथा विवेक की भलाई के लिए. 29 मेरा मतलब तुम्हारे अपने विवेक से नहीं परन्तु उस अन्य व्यक्ति के विवेक से है—मेरी स्वतन्त्रता भला क्यों किसी दूसरे के विवेक द्वारा नापी जाए? 30 यदि मैं धन्यवाद देकर भोजन में शामिल होता हूँ तो उसके लिए मुझ पर दोष क्यों लगाया जाता है, जिसके लिए मैंने परमेश्वर के प्रति धन्यवाद प्रकट किया?
31 इसलिए तुम चाहे जो कुछ करो, चाहे जो कुछ खाओ या पियो, वह परमेश्वर की महिमा के लिए हो. 32 तुम न यहूदियों के लिए ठोकर का कारण बनो, न यूनानियों के लिए और न ही परमेश्वर की कलीसिया के लिए; 33 ठीक जिस प्रकार मैं भी सबको सब प्रकार से प्रसन्न रखता हूँ और मैं अपने भले का नहीं परन्तु दूसरों के भले का ध्यान रखता हूँ कि उन्हें उद्धार प्राप्त हो.
11 जिस प्रकार मैं मसीह के जैसी चाल चलता हूँ, तुम भी मेरी जैसी चाल चलो.
कनानवासी स्त्री का सराहनीय विश्वास
(मत्ति 15:21-28)
24 मसीह येशु वहाँ से निकल कर त्सोर प्रदेश में चले गए, जहाँ वह एक घर में ठहरे हुए थे और नहीं चाहते थे कि भीड़ को उनके विषय में कुछ मालूम हो किन्तु उनका वहाँ आना छिप न सका. 25 उनके विषय में सुन कर एक स्त्री उनसे भेंट करने वहाँ आई जिसकी पुत्री प्रेतात्मा से पीड़ित थी. वहाँ प्रवेश करते ही वह मसीह येशु के चरणों पर जा गिरी. 26 वह स्त्री यूनानी थी—सुरोफ़ॉयनिकी जाति की. वह मसीह येशु से विनती करती रही कि वह उसकी पुत्री में से प्रेत को निकाल दें.
27 मसीह येशु ने उससे कहा, “पहले बालकों को तो तृप्त हो जाने दो! उन्हें परोसा भोजन उनसे ले कर कुत्तों को देना सही नहीं!”
28 किन्तु इसके उत्तर में उस स्त्री ने कहा, “सच है प्रभु, किन्तु कुत्ते भी तो बालकों की मेज़ पर से गिरे हुए चूर-चार को ही खाते हैं.”
29 मसीह येशु ने उससे कहा, “तुम्हारे इस उत्तर का परिणाम यह है कि दुष्टात्मा तुम्हारी पुत्री को छोड़ कर जा चुकी है. घर लौट जाओ.”
30 घर पहुँच कर उसने अपनी पुत्री को बिछौने पर लेटा हुआ पाया. दुष्टात्मा उसे छोड़ कर जा चुकी थी.
झील के तट पर चंगाई
(मत्ति 15:29-31)
31 तब वह त्सोर के क्षेत्र से निकल कर त्सीदोन क्षेत्र से होते हुए गलील झील के पास आए, जो देकापोलिस अंचल में था. 32 लोग उनके पास एक ऐसे व्यक्ति को लाए जो बहिरा था तथा बड़ी कठिनाई से बोल पाता था. लोगों ने मसीह येशु से उस व्यक्ति पर हाथ रखने की विनती की.
33 मसीह येशु उस व्यक्ति को भीड़ से दूर एकान्त में ले गए. वहाँ उन्होंने उसके कानों में अपनी उँगलियां डालीं. इसके बाद अपनी लार उसकी जीभ पर लगाई. 34 तब एक गहरी आह भरते हुए स्वर्ग की ओर दृष्टि उठा कर उन्होंने उस व्यक्ति को सम्बोधित कर कहा, “एफ़्फ़ाथा!” अर्थात् खुल जा! 35 उस व्यक्ति के कान खुल गए, उसकी जीभ की रुकावट भी जाती रही और वह सामान्य रूप से बातें करने लगा.
36 मसीह येशु ने लोगों को आज्ञा दी कि वे इसके विषय में किसी से न कहें किन्तु मसीह येशु जितना रोकते थे, वे उतना ही अधिक प्रचार करते जाते थे. 37 लोग आश्चर्य से भरकर कहा करते थे, “वह जो कुछ करते हैं, भला ही करते हैं—यहाँ तक कि वह बहिरे को सुनने की तथा गूंगे को बोलने की शक्ति प्रदान कर रहे हैं.”
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