Revised Common Lectionary (Complementary)
पाँचवाँ भाग
(भजनसंहिता 107–150)
1 यहोवा का धन्यवाद करो, क्योंकि वह उत्तम है।
उसका प्रेम अमर है।
2 हर कोई ऐसा व्यक्ति जिसे यहोवा ने बचाया है, इन राष्ट्रों को कहे।
हर कोई ऐसा व्यक्ति जिसे यहोवा ने अपने शत्रुओं से छुड़ाया उसके गुण गाओ।
3 यहोवा ने निज भक्तों को बहुत से अलग अलग देशों से इकट्ठा किया है।
उसने उन्हें पूर्व और पश्चिम से, उत्तर और दक्षिण से जुटाया है।
23 कुछ लोग अपने काम करने को अपनी नावों से समुद्र पार कर गये।
24 उन लोगों ने ऐसी बातों को देखा है जिनको यहोवा कर सकता है।
उन्होंने उन अद्भुत बातों को देखा है जिन्हें यहोवा ने सागर पर किया है।
25 परमेश्वर ने आदेश दिया, फिर एक तीव्र पवन तभी चलने लगी।
बड़ी से बड़ी लहरे आकार लेने लगी।
26 लहरे इतनी ऊपर उठीं जितना आकाश हो
तूफान इतना भयानक था कि लोग भयभीत हो गये।
27 लोग लड़खड़ा रहे थे, गिरे जा रहे थे जैसे नशे में धुत हो।
खिवैया उनकी बुद्धि जैसे व्यर्थ हो गयी हो।
28 वे संकट में थे सो उन्होंने सहायता पाने को यहोवा को पुकारा।
तब यहोवा ने उनको संकटों से बचा लिया।
29 परमेश्वर ने तूफान को रोका
और लहरें शांत हो गयी।
30 खिवैया प्रसन्न थे कि सागर शांत हुआ था।
परमेश्वर उनको उसी सुरक्षित स्थान पर ले गया जहाँ वे जाना चाहते थे।
31 यहोवा का धन्यवाद करो उसके प्रेम के लिये धन्यवाद करो
उन अद्भुत कामों के लिये जिन्हें वह लोगों के लिये करता है।
32 महासभा के बीच उसका गुणगान करो।
जब बुजुर्ग नेता आपस में मिलते हों उसकी प्रशंसा करों।
21 “पहले, लोग मेरी बात सुना करते थे,
और वे जब मेरी सम्मत्ति की प्रतीक्षा किया करते थे,
तो चुप रहा करते थे।
22 मेरे बोल चुकने के बाद, उन लोगों के पास जो मेरी बात सुनते थे, कुछ भी बोलने को नहीं होता था।
मेरे शब्द धीरे—धीरे उनके कानों में वर्षा की तरह पड़ा करते थे।
23 लोग जैसे वर्षा की बाट जोहते हैं वैसे ही वे मेरे बोलने की बाट जोहा करते थे।
मेरे शब्दों को वे पी जाया करते थे, जैसे मेरे शब्द बसन्त में वर्षा हों।
24 जब मैं दया करने को उन पर मुस्कराता था, तो उन्हें इसका यकीन नहीं होता था।
फिर मेरा प्रसन्न मुख दु:खी जन को सुख देता था।
25 मैंने उत्तरदायित्व लिया और लोगों के लिये निर्णय किये, मैं नेता बन गया।
मैंने उनकी सेना के दलों के बीच राजा जैसा जीवन जिया।
मैं ऐसा व्यक्ति था जो उन लोगों को चैन देता था जो बहुत ही दु:खी है।
30 “अब, आयु में छोटे लोग मेरा माजक बनाते हैं।
उन युवा पुरुषों के पित बिलकुल ही निकम्मे थे।
जिनको मैं उन कुत्तों तक की सहायता नहीं करने देता था जो भेंड़ों के रखवाले हैं।
2 उन युवा पुरुषों के पिता मुझे सहारा देने की कोई शक्ति नहीं रखते हैं,
वे बूढे हो चुके हैं और थके हुये हैं।
3 वे व्यक्ति मुर्दे जैसे हैं क्योंकि खाने को उनके पास कुछ नहीं है
और वे भूखे हैं, सो वे मरुभूमि के सूखे कन्द खाना चाहते हैं।
4 वे लोग मरुभूमि में खारे पौधों को उखाड़ते हैं
और वे पीले फूल वाले पीलू के पेड़ों की जड़ों को खाते हैं।
5 वे लोग, दूसरे लोगों से भगाये गये हैं
लोग जैसे चोर पर पुकारते हैं उन पर पुकारते हैं।
6 ऐसे वे बूढ़े लोग सूखी हुई नदी के तलों में
चट्टानों के सहारे और धरती के बिलों में रहने को विवश हैं।
7 वे झाड़ियों के भीतर रेंकते हैं।
कंटीली झाड़ियों के नीचे वे आपस में एकत्र होते हैं।
8 वे बेकार के लोगों का दल है, जिनके नाम तक नहीं हैं।
उनको अपना गाँव छोड़ने को मजबूर किया गया है।
9 “अब ऐसे उन लोगों के पुत्र मेरी हँसी उड़ाने को मेरे विषय में गीत गाते हैं।
मेरा नाम उनके लिये अपशब्द सा बन गया है।
10 वे युवक मुझसे घृणा करते हैं।
वे मुझसे दूर खड़े रहते हैं और सोचते हैं कि वे मुझसे उत्तम हैं।
यहाँ तक कि वे मेरे मुँह पर थूकते हैं।
11 परमेश्वर ने मेरे धनुष से उसकी डोर छीन ली है और मुझे दुर्बल किया है।
वे युवक अपने आप नहीं रुकते हैं बल्कि क्रोधित होते हुये मुझ पर मेरे विरोध में हो जाते हैं।
12 वे युवक मेरी दाहिनी ओर मुझ पर प्रहार करते हैं।
वे मुझे मिट्टी में गिराते हैं वे ढलुआ चबूतरे बनाते हैं,
मेरे विरोध में मुझ पर प्रहार करके मुझे नष्ट करने को।
13 वे युवक मेरी राह पर निगरानी रखते हैं कि मैं बच निकल कर भागने न पाऊँ।
वे मुझे नष्ट करने में सफल हो जाते हैं।
उनके विरोध में मेरी सहायता करने को मेरे साथ कोई नहीं है।
14 वे मुझ पर ऐसे वार करते हैं, जैसे वे दिवार में सूराख निकाल रहें हो।
एक के बाद एक आती लहर के समान वे मुझ पर झपट कर धावा करते हैं।
15 मुझको भय जकड़ लेता है।
जैसे हवा वस्तुओं को उड़ा ले जाती है, वैसी ही वे युवक मेरा आदर उड़ा देते हैं।
जैसे मेघ अदृश्य हो जाता है, वैसे ही मेरी सुरक्षा अदृश्य हो जाती है।
पौलुस का यरूशलेम जाना
21 फिर उनसे विदा हो कर हम ने सागर में अपनी नाव खोल दी और सीधे रास्ते कोस जा पहुँचे और अगले दिन रोदुस। फिर वहाँ से हम पतरा को चले गये। 2 वहाँ हमने एक जहाज़ लिया जो फिनीके जा रहा था।
3 जब साइप्रस दिखाई पड़ने लगा तो हम उसे बायीं तरफ़ छोड़ कर सीरिया की ओर मुड़ गये क्योंकि जहाज़ को सूर में माल उतारना था सो हम भी वहीं उतर पड़े। 4 वहाँ हमें अनुयायी मिले जिनके साथ हम सात दिन तक ठहरे। उन्होंने आत्मा से प्रेरित होकर पौलुस को यरूशलेम जाने से रोकना चाहा। 5 फिर वहाँ ठहरने का अपना समय पूरा करके हमने विदा ली और अपनी यात्रा पर निकल पड़े। अपनी पत्नियों और बच्चों समेत वे सभी नगर के बाहर तक हमारे साथ आये। फिर वहाँ सागर तट पर हमने घुटनों के बल झुक कर प्रार्थना की। 6 और एक दूसरे से विदा लेकर हम जहाज़ पर चढ़ गये। और वे अपने-अपने घरों को लौट गये।
7 सूर से जल मार्ग द्वारा यात्रा करते हुए हम पतुलिमयिस में उतरे। वहाँ भाईयों का स्वागत सत्कार करते हम उनके साथ एक दिन ठहरे। 8 अगले दिन उन्हें छोड़ कर हम कैसरिया आ गये। और इंजील के प्रचारक फिलिप्पुस के, जो चुने हुए विशेष सात सेवकों में से एक था, घर जा कर उसके साथ ठहरे। 9 उसके चार कुवाँरी बेटियाँ थीं जो भविष्यवाणी किया करती थीं।
10 वहाँ हमारे कुछ दिनों ठहरे रहने के बाद यहूदिया से अगबुस नामक एक नबी आया। 11 हमारे निकट आते हुए उसने पौलुस का कमर बंध उठा कर उससे अपने ही पैर और हाथ बाँध लिये और बोला, “यह है जो पवित्र आत्मा कह रहा है-यानी यरूशलेम में यहूदी लोग, जिसका यह कमर बंध है, उसे ऐसे ही बाँध कर विधर्मियों के हाथों सौंप देंगे।”
12 हमने जब यह सुना तो हमने और वहाँ के लोगों ने उससे यरूशलेम न जाने की प्रार्थना की। 13 इस पर पौलुस ने उत्तर दिया, “इस प्रकार रो-रो कर मेरा दिल तोड़ते हुए यह तुम क्या कर रहे हो? मैं तो यरूशलेम में न केवल बाँधे जाने के लिये बल्कि प्रभु यीशु मसीह के नाम पर मरने तक को तैयार हूँ।”
14 क्योंकि हम उसे मना नहीं पाये। सो बस इतना कह कर चुप हो गये, “जैसी प्रभु की इच्छा।”
15 इन दिनों के बाद फिर हम तैयारी करके यरूशलेम को चल पड़े। 16 कैसरिया से कुछ शिष्य भी हमारे साथ हो लिये थे। वे हमें साइप्रस के एक व्यक्ति मनासोन के यहाँ ले गये जो एक पुराना शिष्य था। हमें उसी के साथ ठहरना था।
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