Read the Gospels in 40 Days
दस युवतियों का दृष्टान्त
25 “स्वर्ग-राज्य उस द्वारचार [a]के समान है जिसमें दस कुँवारी युवतियाँ अपने-अपने दीप ले कर द्वारचार के लिए निकलीं. 2 उनमें से पाँच तो मूर्ख थीं तथा पाँच समझदार. 3 मूर्ख युवतियों ने अपने साथ अपने दीप तो लिए किन्तु तेल नहीं; 4 परन्तु समझदार युवतियों ने अपने दीपों के साथ तेल के बर्तन भी रख लिए. 5 वर के पहुँचने में देर होने के कारण उन्हें नीन्द आने लगी और वे सो गईं.
6 “आधी रात को यह धूमधाम का शब्द सुनायी दिया: ‘वर पहुँच रहा है! उससे भेंट के लिए बाहर आ जाओ.’
7 “सभी युवतियाँ उठीं और अपने-अपने दीप तैयार करने लगीं. 8 मूर्ख युवतियों ने समझदार युवतियों से विनती की, ‘अपने तेल में से कुछ हमें भी दे दो—हमारे दीप बुझे जा रहे हैं.’
9 “किन्तु समझदार युवतियों ने उन्हें उत्तर दिया, ‘हमारे और तुम्हारे दोनों के लिए तो तेल पूरा नहीं होगा. भला तो यह होगा कि तुम जा कर व्यापारियों से अपने लिए तेल मोल ले लो.’
10 “जब वे तेल लेने जा ही रही थीं कि वर आ पहुँचा और वे युवतियाँ, जो तैयार थीं, वर के साथ विवाह के भवन में चली गईं और द्वार बन्द कर दिया गया.
11 “कुछ समय बाद वे अन्य युवतियाँ भी आ गईं और विनती करने लगीं, ‘श्रीमन! हमारे लिए द्वार खोल दीजिए.’
12 “किन्तु उसने उन्हें उत्तर दिया, ‘सच तो यह है कि मैं तुम्हें जानता ही नहीं.’
13 “इसलिए इसी प्रकार तुम भी हमेशा जागते तथा सचेत रहो क्योंकि तुम न तो उस दिन को जानते हो और न ही उस घड़ी को.
सोने के सिक्कों का दृष्टान्त
14 “स्वर्ग-राज्य उस व्यक्ति के समान भी है, जो एक यात्रा के लिए तैयार था, जिसने हर एक सेवक को उसकी योग्यता के अनुरूप सम्पत्ति सौंप दी. 15 एक को पाँच सोने के सिक्के,[b] एक को दो तथा एक को एक. इसके बाद वह अपनी यात्रा पर चला गया. 16 जिस सेवक को सोने के सिक्के दिए गए थे, उसने तुरन्त उस धन का व्यापार में लेन देन किया, जिससे उसने पाँच सोने के सिक्के और कमाए. 17 इसी प्रकार उस सेवक ने भी, जिसे दो सोने के सिक्के दिए गए थे, दो और कमाए. 18 किन्तु जिसे एक सोने का सिक्का दिया गया था, उसने जा कर भूमि में गड्ढा खोदा और अपने स्वामी की दी हुई वह सम्पत्ति वहाँ छिपा दी.
19 “बड़े दिनों के बाद उनके स्वामी ने लौट कर उनसे हिसाब लिया. 20 जिसे पाँच सोने के सिक्के दिए गए थे, उसने अपने साथ पाँच सोने के सिक्के और ला कर स्वामी से कहा, ‘महोदय, आपने मुझे पाँच सोने के सिक्के दिए थे. यह देखिए, मैंने इनसे पाँच और कमाए हैं.’
21 “स्वामी ने उससे कहा, ‘बड़े अच्छे, मेरे योग्य तथा विश्वसनीय सेवक! तुम थोड़े धन में विश्वसनीय पाए गए इसलिए मैं तुम्हें अनेक ज़िम्मेदारियाँ सौंपूँगा. अपने स्वामी के आनन्द में सहभागी हो जाओ.’
22 “वह सेवक भी आया, जिसे दो सोने के सिक्के दिए गए थे. उसने स्वामी से कहा, ‘महोदय, आपने मुझे दो सोने के सिक्के दिए थे. यह देखिए, मैंने दो और कमाए हैं!’
23 “उसके स्वामी ने उससे कहा, ‘बड़े अच्छे, मेरे योग्य तथा विश्वसनीय सेवक! तुम थोड़े धन में विश्वसनीय पाए गए इसलिए मैं तुम्हें भी अनेक ज़िम्मेदारियाँ सौंपूँगा. अपने स्वामी के आनन्द में सहभागी हो जाओ.’
24 “तब वह सेवक भी उपस्थित हुआ, जिसे एक सोने का सिक्का दिया गया था. उसने स्वामी से कहा, ‘महोदय, मैं जानता था कि आप एक कठोर व्यक्ति हैं. आप वहाँ से फसल काटते हैं, जहाँ आपने बोया ही नहीं तथा वहाँ से फसल इकट्ठा करते हैं, जहाँ आपने बीज डाला ही नहीं. 25 इसलिए भय के कारण मैंने आपकी दी हुई निधि भूमि में छिपा दी. देख लीजिए, जो आपका था, वह मैं आपको लौटा रहा हूँ.’
26 “स्वामी ने उसे उत्तर दिया, ‘अरे ओ दुष्ट, और आलसी सेवक! जब तू यह जानता ही था कि मैं वहाँ से फसल काटता हूँ, जहाँ मैंने बोया ही न था तथा वहाँ से फसल इकट्ठा करता हूँ, जहाँ मैंने बीज बोया ही नहीं? 27 तब तो तुझे मेरी सम्पत्ति महाजनों के पास रख देनी थी कि मेरे लौटने पर मुझे मेरी सम्पत्ति ब्याज सहित प्राप्त हो जाती.’
28 “‘इसलिए इससे यह सोने का सिक्का ले कर उसे दे दो, जिसके पास अब दस सोने के सिक्के हैं.’ 29 यह इसलिए कि हर एक को, जिसके पास है, और दिया जाएगा और वह धनी हो जाएगा; किन्तु जिसके पास नहीं है, उससे वह भी ले लिया जाएगा, जो उसके पास है. 30 ‘इस निकम्मे सेवक को बाहर अन्धकार में फेंक दो जहाँ हमेशा रोना और दाँत पीसना होता रहेगा.’”
अन्तिम न्याय सम्बन्धी प्रकाशन
31 “जब मनुष्य के पुत्र का आगमन अपने प्रताप में होगा और सभी स्वर्गदूत उसके साथ होंगे, तब वह अपने महिमा के सिंहासन पर विराजमान हो जाएगा 32 और उसके सामने सभी राष्ट्र इकट्ठा किए जाएँगे. वह उन्हें एक दूसरे से अलग करेगा, जैसे चरवाहा भेड़ों को बकरियों से. 33 वह भेड़ों को अपनी दायीं ओर स्थान देगा तथा बकरियों को अपनी बाँयीं ओर.
34 “तब राजा अपनी दायीं ओर के समूह की तरफ देखकर कहेगा, ‘मेरे पिता के कृपापात्रों! उस राज्य के उत्तराधिकार को स्वीकार करो, जो तुम्हारे लिए सृष्टि की स्थापना के समय से तैयार किया गया है. 35 इसलिए कि जब मैं भूखा था, तुमने मुझे भोजन दिया; जब मैं प्यासा था, तुमने मुझे पानी दिया; मैं परदेशी था, तुमने मुझे अपने यहाँ स्थान दिया; 36 मुझे वस्त्रों की ज़रूरत थी, तुमने मुझे वस्त्र दिए; मैं जब रोगी था, तुम मुझे देखने आए; मैं बन्दीगृह में था, तुम मुझसे भेंट करने आए.’
37 “तब धर्मी इसके उत्तर में कहेंगे, ‘प्रभु! हमने कब आपको भूखा पाया और भोजन दिया; प्यासा देखा और पानी दिया; 38 कब हमने आपको परदेशी पाया और आपको अपने यहाँ स्थान दिया; आपको वस्त्रों की ज़रूरत में पाया और वस्त्र दिए; 39 हमने आपको कब रोगी या बन्दीगृह में देखा और आप से भेंट करने आए?’
40 “राजा उन्हें उत्तर देगा, ‘सच तो यह है कि जो कुछ तुमने मेरे इन लोगों में से किसी एक के लिए किया—यहाँ तक कि छोटे से छोटे के लिए भी—वह तुमने मेरे लिए किया.’
41 “तब राजा अपने बायें पक्ष के समूह से उन्मुख हो कहेगा, ‘मुझसे दूर हो जाओ, शापितो! अनन्त आग में जा पड़ो, जो शैतान और उसके दूतों के लिए तैयार की गई है; 42 क्योंकि मैं जब भूखा था, तुमने मुझे खाने को न दिया; मैं प्यासा था, तुमने मुझे पानी न दिया; 43 मैं परदेशी था, तुमने अपने यहाँ मुझे स्थान न दिया; मुझे वस्त्रों की ज़रूरत थी, तुमने मुझे वस्त्र न दिए; मैं रोगी और बन्दीगृह में था, तुम मुझसे भेंट करने न आए.’
44 “तब वे भी उत्तर देंगे, ‘प्रभु, भला कब हमने आपको भूखा, प्यासा, परदेशी, वस्त्रों की ज़रूरत में या रोगी तथा बन्दीगृह में देखा और आपकी सुधि न ली?’
45 “तब राजा उन्हें उत्तर देगा, ‘सच तो यह है कि जो कुछ तुमने मेरे इन लोगों में से किसी एक के लिए—यहाँ तक कि छोटे से छोटे तक के लिए नहीं किया—वह तुमने मेरे लिए नहीं किया.’
46 “ये सभी अनन्त दण्ड में भेजे जाएँगे, किन्तु धर्मी अनन्त काल के जीवन में प्रवेश करेंगे.”
येशु की हत्या का षड्यन्त्र
(मारक 14:1-2; लूकॉ 22:1-2)
26 इस रहस्य के खुलने के बाद येशु ने शिष्यों को देखकर कहा, 2 “यह तो तुम्हें मालूम ही है कि दो दिन बाद फ़सह उत्सव है. इस समय मनुष्य के पुत्र को क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिए सौंप दिया जाएगा.”
3 दूसरी ओर प्रधान याजक और वरिष्ठ नागरिक कायाफ़स नामक महायाजक के घर के आँगन में इकट्ठा हुए. 4 उन्होंने मिल कर येशु को छलपूर्वक पकड़ कर उनकी हत्या कर देने का विचार किया. 5 वे यह विचार भी कर रहे थे: “यह फ़सह उत्सव के अवसर पर न किया जाए—कहीं इससे लोगों में बलवा न भड़क उठे.”
बैथनियाह नगर में येशु का अभ्यंजन
(मारक 14:3-9; योहन 12:1-11)
6 जब येशु बैथनियाह गाँव में शिमोन के घर पर थे—वही शिमोन, जिसे पहले कोढ़ रोग हुआ था, 7 —एक स्त्री उनके पास संगमरमर के बर्तन में कीमती इत्र ले कर आई. उसे उसने भोजन के लिए बैठे येशु के सिर पर उण्डेल दिया.
8 यह देख शिष्य गुस्सा हो कहने लगे, “यह फिज़ूलखर्ची किस लिए? 9 यह इत्र तो ऊँचे दाम पर बिक सकता था और प्राप्त धनराशि गरीबों में बांटी जा सकती थी.”
10 इस विषय को जानकर येशु ने उन्हें झिड़कते हुए कहा, “क्यों सता रहे हो इस स्त्री को? इसने मेरे हित में एक सराहनीय काम किया है. 11 निर्धन तुम्हारे साथ हमेशा रहेंगे किन्तु मैं तुम्हारे साथ हमेशा नहीं रहूँगा. 12 मुझे मेरे अंतिम संस्कार के लिए तैयार करने के लिए इसने यह इत्र मेरे शरीर पर उण्डेला है. 13 सच तो यह है कि सारे जगत में जहाँ कहीं यह सुसमाचार प्रचार किया जाएगा, इस स्त्री के इस कार्य का वर्णन भी इसकी याद में किया जाएगा.”
यहूदाह का धोखा
(मारक 14:10-11; लूकॉ 22:3-6)
14 तब कारयोतवासी यहूदाह, जो बारह शिष्यों में से एक था, प्रधान पुरोहितों के पास गया 15 और उनसे विचार-विमर्श करने लगा, “यदि मैं येशु को पकड़वा दूँ तो आप मुझे क्या देंगे?” उन्होंने उसे गिन कर चांदी के तीस सिक्के दे दिए. 16 उस समय से वह येशु को पकड़वाने के लिए सही अवसर की ताक में रहने लगा.
फ़सह भोज की तैयारी
(मारक 14:12-16; लूकॉ 22:7-13)
17 ख़मीर-रहित रोटी के उत्सव के पहिले दिन शिष्यों ने येशु के पास आ कर पूछा, “हम आपके लिए फ़सह भोज की तैयारी कहाँ करें? आप क्या चाहते हैं?”
18 येशु ने उन्हें निर्देश दिया, “नगर में एक व्यक्ति विशेष के पास जाना और उससे कहना, ‘गुरुवर ने कहा है, मेरा समय पास है. मुझे अपने शिष्यों के साथ आपके घर में फ़सह उत्सव मनाना है.’” 19 शिष्यों ने वैसा ही किया, जैसा येशु ने निर्देश दिया था और उन्होंने फ़सह भोज तैयार किया.
20 सन्ध्या समय येशु अपने बारह शिष्यों के साथ बैठे हुए थे. 21 जब वे भोजन कर रहे थे येशु ने उनसे कहा, “मैं तुम पर एक सच प्रकट कर रहा हूँ: तुम्हीं में एक है, जो मेरे साथ धोखा करेगा.”
22 बहुत उदास मन से हर एक शिष्य येशु से पूछने लगा, “प्रभु, वह मैं तो नहीं हूँ?”
23 येशु ने उन्हें उत्तर दिया, “जिसने मेरे साथ कटोरे में अपना कौर डुबोया था, वही है, जो मेरे साथ धोखा करेगा. 24 मानव-पुत्र को तो जैसा कि उसके विषय में पवित्रशास्त्र में लिखा है, जाना ही है; किन्तु धिक्कार है उस व्यक्ति पर, जो मनुष्य के पुत्र के साथ धोखा करेगा. उस व्यक्ति के लिए अच्छा तो यही होता कि उसका जन्म ही न होता.”
25 यहूदाह ने, जो येशु के साथ धोखा कर रहा था, उनसे प्रश्न किया, “रब्बी, वह मैं तो नहीं हूँ न?”[c]
येशु ने उसे उत्तर दिया, “यह तुमने स्वयं ही कह दिया है.”
26 जब वे भोजन के लिए बैठे, येशु ने रोटी ली, उसके लिए आशीष विनती की, उसे तोड़ा और शिष्यों को देते हुए कहा, “यह लो, खाओ; यह मेरा शरीर है.”
27 तब येशु ने प्याला लिया, उसके लिए धन्यवाद दिया तथा शिष्यों को देते हुए कहा, “तुम सब इसमें से पियो. 28 यह वाचा का[d] मेरा लहू है जो अनेकों की पाप-क्षमा के लिए उण्डेला जा रहा है. 29 मैं तुम पर यह सच प्रकट करना चाहता हूँ कि अब मैं दाखरस उस समय तक नहीं पिऊँगा जब तक मैं अपने पिता के राज्य में तुम्हारे साथ नया दाखरस न पिऊँ.”
30 तब एक भक्ति गीत गाने के बाद वे सब ज़ैतून पर्वत पर चले गए.
शिष्यों की भावी निर्बलता की भविष्यवाणी
31 येशु ने शिष्यों से कहा, “आज रात तुम सभी मेरा साथ छोड़ कर चले जाओगे जैसा कि इस सम्बन्ध में पवित्रशास्त्र का लेख है:
“‘मैं चरवाहे का संहार करूँगा और,
झुण्ड की सभी भेड़ें
तितर-बितर हो जाएँगी.’
32 हाँ, पुनर्जीवित किए जाने के बाद मैं तुमसे पहले गलील प्रदेश पहुँच जाऊँगा.”
33 किन्तु पेतरॉस ने येशु से कहा, “सभी शिष्य आपका साथ छोड़ कर जाएँ तो जाएँ किन्तु मैं आपका साथ कभी न छोड़ूँगा.”
34 येशु ने उनसे कहा, “सच्चाई तो यह है कि आज ही रात में, इसके पहले कि मुर्ग बाँग दे, तुम मुझे तीन बार नकार चुके होंगे.”
35 पेतरॉस ने दोबारा उनसे कहा, “मुझे आपके साथ यदि मृत्यु को भी गले लगाना पड़े तो भी मैं आपको नहीं नकारूंगा.” अन्य सभी शिष्यों ने यही दोहराया.
गेतसेमनी बगीचे में येशु की अवर्णनीय वेदना
(मारक 14:32-42; लूकॉ 22:39-46)
36 तब येशु उनके साथ गेतसेमनी नामक स्थान पर पहुँचे. उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, “तुम यहीं बैठो जब तक मैं वहाँ जा कर प्रार्थना करता हूँ.” 37 फिर वह पेतरॉस और ज़ेबेदियॉस के दोनों पुत्रों को अपने साथ ले आगे चले गए. वहाँ येशु अत्यन्त उदास और व्याकुल होने लगे. 38 उन्होंने शिष्यों से कहा, “मेरे प्राण इतने अधिक उदास हैं, मानो मेरी मृत्यु हो रही हो. मेरे साथ तुम भी जागते रहो.”
39 तब येशु उनसे थोड़ी ही दूर जा मुख के बल गिर कर प्रार्थना करने लगे. उन्होंने परमेश्वर से निवेदन किया, “मेरे पिता, यदि सम्भव हो तो यह प्याला मुझसे टल जाए; फिर भी मेरी नहीं परन्तु आपकी इच्छा के अनुरूप हो.”
40 जब वह अपने शिष्यों के पास लौटे तो उन्हें सोया हुआ देख उन्होंने पेतरॉस से कहा, “अच्छा, तुम मेरे साथ एक घण्टा भी सजग न रह सके! 41 सजग रहो, प्रार्थना करते रहो, ऐसा न हो कि तुम परीक्षा में पड़ जाओ. हाँ, निःसन्देह आत्मा तो तैयार है किन्तु शरीर दुर्बल.”
42 तब येशु ने दूसरी बार जा कर प्रार्थना की, “मेरे पिता, यदि यह प्याला मेरे पिए बिना मुझ से टल नहीं सकता तो आप ही की इच्छा पूरा हो.”
43 वह दोबारा लौट कर आए तो देखा कि शिष्य सोए हुए हैं—क्योंकि उनकी पलकें बोझिल थीं. 44 एक बार फिर वह उन्हें छोड़ आगे चले गए और तीसरी बार प्रार्थना की और उन्होंने प्रार्थना में वही सब दोहराया.
45 तब वह शिष्यों के पास लौटे और उनसे कहा, “सोते रहो और विश्राम करो! बहुत हो गया! देखो! आ गया है वह क्षण! मनुष्य का पुत्र पापियों के हाथों पकड़वाया जा रहा है. 46 उठो! यहाँ से चलें. देखो, जो मुझे पकड़वाने पर है, वह आ गया!”
येशु का बन्दी बनाया जाना
(मारक 14:43-52; लूकॉ 22:47-53; योहन 18:1-11)
47 येशु अपना कथन समाप्त भी न कर पाए थे कि यहूदाह, जो बारह शिष्यों में से एक था, वहाँ आ पहुँचा. उसके साथ एक बड़ी भीड़ थी, जो तलवारें और लाठियाँ लिए हुए थी. ये सब प्रधान पुरोहितों और पुरनियों की ओर से प्रेषित किए गए थे. 48 येशु के विश्वासघाती ने उन्हें यह संकेत दिया था: “मैं जिसे चूमूँ, वही होगा वह. उसे ही पकड़ लेना.” 49 तुरन्त यहूदाह येशु के पास आया और कहा, “प्रणाम, रब्बी!” और उन्हें चूम लिया.
50 येशु ने यहूदाह से कहा.
“मेरे मित्र, जिस काम के लिए आए हो, उसे पूरा कर लो.” उन्होंने आ कर येशु को पकड़ लिया. 51 येशु के शिष्यों में से एक ने तलवार खींची और महायाजक के दास पर चला दी जिससे उसका कान कट गया.
52 येशु ने उस शिष्य से कहा, “अपनी तलवार को म्यान में रखो! जो तलवार उठाते हैं, वे तलवार से ही नाश किए जाएँगे. 53 तुम यह तो नहीं सोच रहे कि मैं अपने पिता से विनती नहीं कर सकता और वह मेरे लिए स्वर्गदूतों के बारह से अधिक बड़ी सेना नहीं भेज सकते? 54 फिर भला पवित्रशास्त्र के लेख कैसे पूरे होंगे, जिनमें लिखा है कि यह सब इसी प्रकार होना अवश्य है?”
55 तब येशु ने भीड़ को सम्बोधित करते हुए कहा, “क्या तुम्हें मुझे पकड़ने के लिए तलवारें और लाठियाँ ले कर आने की ज़रूरत थी, जैसे किसी डाकू को पकड़ने के लिए होती है? मैं तो प्रतिदिन मन्दिर में बैठ कर शिक्षा दिया करता था! तब तुमने मुझे नहीं पकड़ा! 56 यह सब इसलिए हुआ है कि भविष्यद्वक्ताओं के लेख पूरे हों.” इस समय सभी शिष्य उन्हें छोड़ कर भाग चुके थे.
येशु महासभा के सामने
(मारक 14:53-65)
57 जिन्होंने येशु को पकड़ा था वे उन्हें महायाजक कायाफ़स के यहाँ ले गए, जहाँ शास्त्री तथा पुरनिये इकट्ठा थे. 58 पेतरॉस कुछ दूरी पर येशु के पीछे-पीछे चलते हुए महायाजक के प्रांगण में आ पहुँचे और वहाँ वह प्रहरियों के साथ बैठ गए कि देखें आगे क्या-क्या होता है.
59 प्रधान पुरोहितों तथा सभी परिषद का प्रयास मात्र यह था कि वे येशु के विरुद्ध झूठे गवाह खड़े कर लें और येशु को मृत्युदण्ड दिला सकें. 60 परन्तु अनेक झूठे गवाह सामने आए किन्तु मृत्युदण्ड के लिए आवश्यक दो सहमत गवाह उन्हें फिर भी न मिले. अन्त में ऐसे दो गवाह आए.
जिन्होंने कहा, 61 “यह व्यक्ति कहता था कि यह परमेश्वर के मन्दिर को नाश करके उसे तीन दिन में दोबारा खड़ा करने में समर्थ है.”
62 यह सुनते ही महायाजक उठ खड़ा हुआ और येशु से कहने लगा, “जो आरोप ये लोग तुम पर लगा रहे हैं क्या उसके बचाव में तुम्हारे पास कोई उत्तर नहीं?” 63 येशु मौन ही रहे.
तब महायाजक ने येशु से कहा, “मैं तुम्हें जीवित परमेश्वर की शपथ देता हूँ कि तुम हमें बताओ क्या तुम्हीं मसीह—परमेश्वर-पुत्र हो?”
64 येशु ने उसे उत्तर दिया, “आपने यह स्वयं कह दिया है, फिर भी, मैं आपको यह बताना चाहता हूँ कि इसके बाद आप मनुष्य के पुत्र को सर्वशक्तिमान की दायीं ओर बैठे तथा आकाश के बादलों पर आता हुआ देखेंगे.”
65 यह सुनना था कि महायाजक ने अपने वस्त्र फाड़ डाले और कहा, “परमेश्वर-निन्दा की है इसने! क्या अब भी गवाहों की ज़रूरत है?
“आप सभी ने स्वयं यह परमेश्वर-निन्दा सुनी है. 66 अब क्या विचार है आपका?” उन्होंने उत्तर दिया, “यह मृत्युदण्ड के योग्य है.”
67 तब उन्होंने येशु के मुख पर थूका, उन पर घूंसों से प्रहार किया, कुछ ने उन्हें थप्पड़ भी मारे और फिर उनसे प्रश्न किया, 68 “मसीह महोदय! यदि आप भविष्यद्वक्ता हैं, तो अपनी भविष्यवाणी से बताइए कि आपको किसने मारा है?”
पेतरॉस का नकारना
(मारक 14:66-72; लूकॉ 22:54-65; योहन 18:25-27)
69 पेतरॉस आँगन में बैठे हुए थे. एक दासी वहाँ से निकली और पेतरॉस से पूछने लगी, “तुम भी तो उस गलीलवासी येशु के साथ थे न?”
70 किन्तु पेतरॉस ने सबके सामने यह कहते हुए इस सच को नकार दिया: “क्या कह रही हो? मैं समझा नहीं!”
71 जब पेतरॉस द्वार से बाहर निकले, एक दूसरी दासी ने पेतरॉस को देख वहाँ उपस्थित लोगों से कहा, “यह व्यक्ति नाज़रेथ के येशु के साथ था.”
72 एक बार फिर पेतरॉस ने शपथ खा कर नकारते हुए कहा, “मैं उस व्यक्ति को नहीं जानता.”
73 कुछ समय बाद एक व्यक्ति ने पेतरॉस के पास आ कर कहा, “इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुम भी उनमें से एक हो. तुम्हारी भाषा-शैली से यह स्पष्ट हो रहा है.”
74 पेतरॉस अपशब्द कहते हुए शपथ खा कर कहने लगे, “मैं उस व्यक्ति को नहीं जानता!” उनका यह कहना था कि मुर्ग ने बाँग दी. 75 पेतरॉस को येशु की वह कही हुई बात याद आई, “इसके पूर्व कि मुर्ग बाँग दे तुम मुझे तीन बार नकार चुके होगे.” पेतरॉस बाहर गए और फूट-फूट कर रोने लगे.
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