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Bible in 90 Days

An intensive Bible reading plan that walks through the entire Bible in 90 days.
Duration: 88 days
Hindi Bible: Easy-to-Read Version (ERV-HI)
Version
रोमियों 15 - 1 कुरिन्थियों 14

15 हम जो आत्मिक रूप से शक्तिशाली हैं, उन्हें उनकी दुर्बलता सहनी चाहिये जो शक्तिशाली नहीं हैं। हम बस अपने आपको ही प्रसन्न न करें। हम में से हर एक, दूसरों की अच्छाइयों के लिए इस भावना के साथ कि उनकी आत्मिक बढ़ोतरी हो, उन्हें प्रसन्न करे। यहाँ तक कि मसीह ने भी स्वयं को प्रसन्न नहीं किया था। बल्कि जैसा कि मसीह के बारे में शास्त्र कहता है: “उनका अपमान जिन्होंने तेरा अपमान किया है, मुझ पर आ पड़ा है।”(A) हर वह बात जो शास्त्रों में पहले लिखी गयी, हमें शिक्षा देने के लिए थी ताकि जो धीरज और बढ़ावा शास्त्रों से मिलता है, हम उससे आशा प्राप्त करें। और समूचे धीरज और बढ़ावे का स्रोत परमेश्वर तुम्हें वरदान दे कि तुम लोग एक दूसरे के साथ यीशु मसीह के उदाहरण पर चलते हुए आपस में मिल जुल कर रहो।

ताकि तुम सब एक साथ एक स्वर से हमारे प्रभु यीशु मसीह के परमपिता, परमेश्वर को महिमा प्रदान करो। इसलिए एक दूसरे को अपनाओ जैसे तुम्हें मसीह ने अपनाया। यह परमेश्वर की महिमा के लिए करो। मैं तुम लोगों को बताता हूँ कि यह प्रकट करने को कि परमेश्वर विश्वसनीय है उनके पुरखों को दिये गए परमेश्वर के वचन को दृढ़ करने को मसीह यहूदियों का सेवक बना। ताकि ग़ैर यहूदी लोग भी परमेश्वर को उसकी करुणा के लिए महिमा प्रदान करें। शास्त्र कहता है:

“इसलिये ग़ैर यहूदियों के बीच
    तुझे पहचानूँगा और तेरे नाम की महिमा गाऊँगा।”(B)

10 और यह भी कहा गया है,

“हे ग़ैर यहूदियो, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साथ प्रसन्न रहो।”(C)

11 और फिर शास्त्र यह भी कहता है,

“हे ग़ैर यहूदी लोगो, तुम प्रभु की स्तुति करो।
    और सभी जातियो, परमेश्वर की स्तुति करो।”(D)

12 और फिर यशायाह भी कहता है,

“यिशै का एक वंशज प्रकट होगा
    जो ग़ैर यहूदियों के शासक के रूप में उभरेगा।
    ग़ैर यहूदी उस पर अपनी आशा लगाएँगे।”(E)

13 सभी आशाओं का स्रोत परमेश्वर, तुम्हें सम्पूर्ण आनन्द और शांति से भर दे जैसा कि उसमें तुम्हारा विश्वास है। ताकि पवित्र आत्मा की शक्ति से तुम आशा से भरपूर हो जाओ।

पौलुस द्वारा अपने पत्र और कामों की चर्चा

14 हे मेरे भाईयों, मुझे स्वयं तुम पर भरोसा है कि तुम नेकी से भरे हो और ज्ञान से परिपूर्ण हो। तुम एक दूसरे को शिक्षा दे सकते हो। 15 किन्तु तुम्हें फिर से याद दिलाने के लिये मैंने कुछ विषयों के बारे में साफ साफ लिखा है। मैंने परमेश्वर का जो अनुग्रह मुझे मिला है, उसके कारण यह किया है। 16 यानी मैं ग़ैर यहूदियों के लिए यीशु मसीह का सेवक बन कर परमेश्वर के सुसमाचार के लिए एक याजक के रूप में काम करूँ ताकि ग़ैर यहूदी परमेश्वर के आगे स्वीकार करने योग्य भेंट बन सकें और पवित्र आत्मा के द्वारा परमेश्वर के लिये पूरी तरह पवित्र बनें।

17 सो मसीह यीशु में एक व्यक्ति के रूप में परमेश्वर के प्रति अपनी सेवा का मुझे गर्व है। 18 क्योंकि मैं बस उन्हीं बातों को कहने का साहस रखता हूँ जिन्हें मसीह ने ग़ैर यहूदियों को परमेश्वर की आज्ञा मानने का रास्ता दिखाने का काम मेरे वचनों, मेरे कर्मों, 19 आश्चर्य चिन्हों और अद्भुत कामों की शक्ति और परमेश्वर की आत्मा के सामर्थ्य से, मेरे द्वारा पूरा किया। सो यरूशलेम से लेकर इल्लुरिकुम के चारों ओर मसीह के सुसमाचार के उपदेश का काम मैंने पूरा किया। 20 मेरे मन में सदा यह अभिलाषा रही है कि मैं सुसमाचार का उपदेश वहाँ दूँ जहाँ कोई मसीह का नाम तक नहीं जानता, ताकि मैं किसी दूसरे व्यक्ति की नींव पर निर्माण न करूँ। 21 किन्तु शास्त्र कहता है:

“जिन्हें उसके बारे में नहीं वताया गया है, वे उसे देखेंगे।
    और जिन्होंने सुना तक नहीं है, वे समझेगें।”(F)

पौलुस की रोम जाने की योजना

22 मेरे ये कर्तव्य मुझे तुम्हारे पास आने से बार बार रोकते रहे हैं।

23 किन्तु क्योंकि अब इन प्रदेशों में कोई स्थान नहीं बचा है और बहुत बरसों से मैं तुमसे मिलना चाहता रहा हूँ, 24 सो मैं जब इसपानिया जाऊँगा तो आशा करता हूँ तुमसे मिलूँगा! मुझे उम्मीद है कि इसपानिया जाते हुए तुमसे भेंट होगी। तुम्हारे साथ कुछ दिन ठहरने का आनन्द लेने के बाद मुझे आशा है कि वहाँ की यात्रा के लिए मुझे तुम्हारी मदद मिलेगी।

25 किन्तु अब मैं परमेश्वर के पवित्र जनों की सेवा में यरूशलेम जा रहा हूँ। 26 क्योंकि मकिदुनिया और अखैया के कलीसिया के लोगों ने यरूशलेम में परमेश्वर के पवित्र जनों में जो दरिद्र हैं, उनके लिए कुछ देने का निश्चय किया है। 27 हाँ, उनके प्रति उनका कर्तव्य भी बनता है क्योंकि यदि ग़ैर यहूदियों ने यहूदियों के आध्यात्मिक कार्यों में हिस्सा बटाया है तो ग़ैर यहूदियों को भी उनके लिये भौतिक सुख जुटाने चाहिये। 28 सो अपना यह काम पूरा करके और इकट्ठा किये गये इस धन को सुरक्षा के साथ उनके हाथों सौंप कर मैं तुम्हारे नगर से होता हुआ इसपानिया के लिये रवाना होऊँगा 29 और मैं जानता हूँ कि जब मैं तुम्हारे पास आऊँगा तो तुम्हारे लिए मसीह के पूरे आर्शीवादों समेत आऊँगा।

30 हे भाईयों, तुमसे मैं प्रभु यीशु मसीह की ओर से आत्मा से जो प्रेम पाते हैं, उसकी साक्षी दे कर प्रार्थना करता हूँ कि तुम मेरी ओर से परमेश्वर के प्रति सच्ची प्रार्थनाओं में मेरा साथ दो 31 कि मैं यहूदियों में अविश्वासियों से बचा रहूँ और यरूशलेम के प्रति मेरी सेवा को परमेश्वर के पवित्र जन स्वीकार करें। 32 ताकि परमेश्वर की इच्छा के अनुसार मैं प्रसन्नता के साथ तुम्हारे पास आकर तुम्हारे साथ आनन्द मना सकूँ। 33 सम्पूर्ण शांति का धाम परमेश्वर तुम्हारे साथ रहे। आमीन।

रोम के मसीहियों को पौलूस का संदेश

16 मैं किंख्रिया की कलीसिया की विशेष सेविका हमारी बहन फ़ीबे की तुम से सिफारिश करता हूँ कि तुम उसे प्रभु में ऐसी रीति से ग्रहण करो जैसी रीति परमेश्वर के लोगों के योग्य है। उसे तुमसे जो कुछ अपेक्षित हो सब कुछ से तुम उसकी मदद करना क्योंकि वह मुझ समेत बहुतों की सहायक रही है।

प्रिस्का और अक्किला को मेरा नमस्कार। वे यीशु मसीह में मेरे सहकर्मी हैं। उन्होंने मेरे प्राण बचाने के लिये अपने जीवन को भी दाव पर लगा दिया था। न केवल मैं उनका धन्यवाद करता हूँ बल्कि ग़ैर यहूदियों की सभी कलीसिया भी उनके धन्यवादी हैं।

उस कलीसिया को भी मेरा नमस्कार जो उनके घर में एकत्र होती है।

मेरे प्रिय मित्र इपनितुस को मेरा नमस्कार जो एशिया में मसीह को अपनाने वालों में पहला है।

मरियम को, जिसने तुम्हारे लिये बहुत काम किया है नमस्कार।

मेरे कुटुम्बी अन्द्रनीकुस और यूनियास को, जो मेरे साथ कारागार में थे और जो प्रमुख धर्म-प्रचारकों में प्रसिद्ध हैं, और जो मुझ से भी पहले मसीह में थे, मेरा नमस्कार।

प्रभु में मेरे प्रिय मित्र अम्पलियातुस को नमस्कार। मसीह में हमारे सहकर्मी उरबानुस तथा

मेरे प्रिय मित्र इस्तुखुस को नमस्कार। 10 मसीह में खरे और सच्चे अपिल्लेस को नमस्कार।

अरिस्तुबुलुस के परिवार को नमस्कार। 11 यहूदी साथी हिरोदियोन को नमस्कार।

नरकिस्सुस के परिवार के उन लोगों को नमस्कार जो प्रभु में हैं। 12 त्रुफेना और त्रुफोसा को जो प्रभु में परिश्रमी कार्यकर्ता हैं, नमस्कार।

मेरी प्रिया परसिस को, जिसने प्रभु में कठिन परिश्रम किया है, मेरा नमस्कार।

13 प्रभु के असाधारण सेवक रूफुस को और उसकी माँ को, जो मेरी भी माँ रही है, नमस्कार।

14 असुंक्रितुस, फिलगोन, हिर्मेस, पत्रुबास, हिर्मोस और उनके साथी बंधुओं को नमस्कार।

15 फिलुलुगुस, यूलिया, नेर्युस तथा उसकी बहन उलुम्पास और उनके सभी साथी संतों को नमस्कार।

16 तुम लोग पवित्र चुंबन द्वारा एक दूसरे का स्वागत करो।

तुम्हें सभी मसीही कलीसियों की ओर से नमस्कार।

17 हे भाइयो, मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि तुमने जो शिक्षा पाई हैं, उसके विपरीत तुममें जो फूट डालते हैं और दूसरों के विश्वास को बिगाड़ते हैं, उनसे सावधान रहो, और उनसे दूर रहो। 18 क्योंकि ये लोग हमारे प्रभु यीशु मसीह की नहीं बल्कि अपने पेट की उपासना करते हैं। और अपनी खुशामद भरी चिकनी चुपड़ी बातों से भोले भाले लोगों के ह्रदय को छलते हैं। 19 तुम्हारी आज्ञाकारिता की चर्चा बाहर हर किसी तक पहुँच चुकी है। इसलिये तुमसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। किन्तु मैं चाहता हूँ कि तुम नेकी के लिये बुद्धिमान बने रहो और बुराई के लिये अबोध रहो।

20 शांति का स्रोत परमेश्वर शीघ्र ही शैतान को तुम्हारे पैरों तले कुचल देगा।

हमारे प्रभु यीशु मसीह का तुम पर अनुग्रह हो।

21 हमारे साथी कार्यकर्ता तीमुथियुस और मेरे यहूदी साथी लूकियुस, यासोन तथा सोसिपत्रुस की ओर से तुम्हें नमस्कार।

22 इस पत्र के लेखक मुझ तिरतियुस का प्रभु में तुम्हें नमस्कार।

23 मेरे और समूची कलीसिया के आतिथ्यकर्ता गयुस का तुम्हें नमस्कार। इरास्तुस जो नगर का खजांची है और हमारे बन्धु क्वारतुस का तुम को नमस्कार। 24 [a]

25 उसकी महिमा हो जो तुम्हारे विश्वास के अनुसार यानी यीशु मसीह के सन्देश के जिस सुसमाचार का मैं उपदेश देता हूँ उसके अनुसार तुम्हें सुदृढ़ बनाने में समर्थ है। परमेश्वर का यह रहस्यपूर्ण सत्य युगयुगान्तर से छिपा हुआ था। 26 किन्तु जिसे अनन्त परमेश्वर के आदेश से भविष्यवक्ताओं के लेखों द्वारा अब हमें और ग़ैर यहूदियों को प्रकट करके बता दिया गया है जिससे विश्वास से पैदा होने वाली आज्ञाकारिता पैदा हो। 27 यीशु मसीह द्वारा उस एक मात्र ज्ञानमय परमेश्वर की अनन्त काल तक महिमा हो। आमीन!

हमारे भाई सोस्थिनिस के साथ पौलुस की ओर से जिसे परमेश्वर ने अपनी इच्छानुसार यीशु मसीह का प्रेरित बनने के लिए चुना।

कुरिन्थुस में स्थित परमेश्वर की उस कलीसिया के नाम; जो यीशु मसीह में पवित्र किये गये, जिन्हें परमेश्वर ने पवित्र लोग बनने के लिये उनके साथ ही चुना है। जो हर कहीं हमारे और उनके प्रभु यीशु मसीह का नाम पुकारते रहते हैं।

हमारे परम पिता की ओर से तथा हमारे प्रभु यीशु मसीह की ओर से तुम सब को उसकी अनुग्रह और शांति प्राप्त हो।

पौलुस का परमेश्वर को धन्यवाद

तुम्हें प्रभु यीशु में जो अनुग्रह प्रदान की गयी है, उसके लिये मैं तुम्हारी ओर से परमेश्वर का सदा धन्यवाद करता हूँ। तुम्हारी यीशु मसीह में स्थिति के कारण तुम्हें हर किसी प्रकार से अर्थात समस्त वाणी और सम्पूर्ण ज्ञान से सम्पन्न किया गया है। मसीह के विषय में हमने जो साक्षी दी है वह तुम्हारे बीच प्रमाणित हुई है। और इसी के परिणामस्वरूप तुम्हारे पास उसके किसी पुरस्कार की कमी नहीं है। तुम हमारे प्रभु यीशु मसीह के प्रकट होने की प्रतिक्षा करते रहते हो। वह तुम्हें अन्त तक हमारे प्रभु यीशु मसीह के दिन एक दम निष्कलंक, खरा बनाये रखेगा। परमेश्वर विश्वासपूर्ण है। उसी के द्वारा तुम्हें हमारे प्रभु और उसके पुत्र यीशु मसीह की सत् संगति के लिये चुना गया है।

कुरिन्थुस के कलीसिया की समस्याएँ

10 हे भाईयों, हमारे प्रभु यीशु मसीह के नाम में मेरी तुमसे प्रार्थना है कि तुम में कोई मतभेद न हो। तुम सब एक साथ जुटे रहो और तुम्हारा चिंतन और लक्ष्य एक ही हो।

11 मुझे खलोए के घराने के लोगों से पता चला है कि तुम्हारे बीच आपसी झगड़े हैं। 12 मैं यह कह रहा हूँ कि तुम में से कोई कहता है, “मैं पौलुस का हूँ” तो कोई कहता है, “मैं अपुल्लोस का हूँ।” किसी का मत है, “वह पतरस का है” तो कोई कहता है, “वह मसीह का है।” 13 क्या मसीह बँट गया है? पौलुस तो तुम्हारे लिये क्रूस पर नहीं चढ़ा था। क्या वह चढ़ा था? तुम्हें पौलुस के नाम का बपतिस्मा तो नहीं दिया गया। बताओ क्या दिया गया था? 14 परमेश्वर का धन्यवाद है कि मैंने तुममें से क्रिसपुस और गयुस को छोड़ कर किसी भी और को बपतिस्मा नहीं दिया। 15 ताकि कोई भी यह न कह सके कि तुम लोगों को मेरे नाम का बपतिस्मा दिया गया है। 16 (मैंने स्तिफनुस के परिवार को भी बपतिस्मा दिया था किन्तु जहाँ तक बाकी के लोगों की बात है, सो मुझे याद नहीं कि मैंने किसी भी और को कभी बपतिस्मा दिया हो।) 17 क्योंकि मसीह ने मुझे बपतिस्मा देने के लिए नहीं, बल्कि वाणी के किसी तर्क-वितर्क के बिना सुसमाचार का प्रचार करने के लिये भेजा था ताकि मसीह का क्रूस यूँ ही व्यर्थ न चला जाये।

परमेश्वर की शक्ति और ज्ञान-स्वरूप मसीह

18 वे जो भटक रहे हैं, उनके लिए क्रूस का संदेश एक निरी मूर्खता है। किन्तु जो उद्धार पा रहे हैं उनके लिये वह परमेश्वर की शक्ति है। 19 शास्त्रों में लिखा है:

“ज्ञानियों के ज्ञान को मैं नष्ट कर दूँगा;
और सारी चतुर की चतुरता मैं कुंठित करूँगा।”(G)

20 कहाँ है ज्ञानी व्यक्ति? कहाँ है विद्वान? और इस युग का षास्त्रर्थी कहाँ है? क्या परमेश्वर ने सांसारिक बुद्धिमानी को मूर्खता नहीं सिद्ध किया? 21 इसलिए क्योंकि परमेश्वरीय ज्ञान के द्वारा यह संसार अपने बुद्धि बल से परमेश्वर को नहीं पहचान सका तो हम संदेश की तथाकथित मूर्खता का प्रचार करते हैं।

22 यहूदी लोग तो चमत्कारपूर्ण संकेतों की माँग करते हैं और ग़ैर यहूदी विवेक की खोज में हैं। 23 किन्तु हम तो बस क्रूस पर चढ़ाये गये मसीह का ही उपदेश देते हैं। एक ऐसा उपदेश जो यहूदियों के लिये विरोध का कारण है और ग़ैर यहूदियों के लिये निरी मूर्खता। 24 किन्तु उनके लिये जिन्हें बुला लिया गया है, फिर चाहे वे यहूदी हैं या ग़ैर यहूदी, यह उपदेश मसीह है जो परमेश्वर की शक्ति है, और परमेश्वर का विवेक है। 25 क्योंकि परमेश्वर की तथाकथित मूर्खता मनुष्यों के ज्ञान से कहीं अधिक विवेकपूर्ण है। और परमेश्वर की तथाकथित दुर्बलता मनुष्य की शक्ति से कहीं अधिक सक्षम है।

26 हे भाइयो, अब तनिक सोचो कि जब परमेश्वर ने तुम्हें बुलाया था तो तुममें से बहुतेरे न तो सांसारिक दृष्टि से बुद्धिमान थे और न ही शक्तिशाली। तुममें से अनेक का सामाजिक स्तर भी कोई ऊँचा नहीं था। 27 बल्कि परमेश्वर ने तो संसार में जो तथाकथित मूर्खतापूर्ण था, उसे चुना ताकि बुद्धिमान लोग लज्जित हों। परमेश्वर ने संसार में दुर्बलों को चुना ताकि जो शक्तिशाली हैं, वे लज्जित हों।

28 परमेश्वर ने संसार में उन्हीं को चुना जो नीच थे, जिनसे घृणा की जाती थी और जो कुछ भी नहीं है। परमेश्वर ने इन्हें चुना ताकि संसार जिसे कुछ समझता है, उसे वह नष्ट कर सके। 29 ताकि परमेश्वर के सामने कोई भी व्यक्ति अभिमान न कर पाये। 30 किन्तु तुम यीशू मसीह में उसी के कारण स्थित हो। वही परमेश्वर के वरदान के रूप में हमारी बुद्धि बन गया है। उसी के द्वारा हम निर्दोष ठहराये गये ताकि परमेश्वर को समर्पित हो सकें और हमें पापों से छुटकारे मिल पाये 31 जैसा कि शास्त्र में लिखा है: “यदि किसी को कोई गर्व करना है तो वह प्रभु में अपनी स्थिति का गर्व करे।”(H)

क्रूस पर चढ़े मसीह के विषय में संदेश

हे भाइयों, जब मैं तुम्हारे पास आया था तो परमेश्वर के रहस्यपूर्ण सत्य का, वाणी की चतुरता अथवा मानव बुद्धि के साथ उपदेश देते हुए नहीं आया था क्योंकि मैंने यह निश्चय कर लिया था कि तुम्हारे बीच रहते, मैं यीशु मसीह और क्रूस पर हुई उसकी मृत्यु को छोड़ कर किसी और बात को जानूँगा तक नहीं। सो मैं दीनता के साथ भय से पूरी तरह काँपता हुआ तुम्हारे पास आया। और मेरी वाणी तथा मेरा संदेश मानव बुद्धि के लुभावने शब्दों से युक्त नहीं थे बल्कि उनमें था आत्मा की शक्ति का प्रमाण ताकि तुम्हारा विश्वास मानव बुद्धि के बजाय परमेश्वर की शक्ति पर टिके।

परमेश्वर का ज्ञान

जो समझदार हैं, उन्हें हम बुद्धि देते हैं किन्तु यह बुद्धि इस युग की बुद्धि नहीं है, न ही इस युग के उन शासकों की बुद्धि है जिन्हें विनाश के कगार पर लाया जा रहा है। इसके स्थान पर हम तो परमेश्वर के उस रहस्यपूर्ण विवेक को देते हैं जो छिपा हुआ था और जिसे अनादि काल से परमेश्वर ने हमारी महिमा के लिये निश्चित किया था। और जिसे इस युग के किसी भी शासक ने नहीं समझा क्योंकि यदि वे उसे समझ पाये होते तो वे उस महिमावान प्रभु को क्रूस पर न चढ़ाते। किन्तु शास्त्र में लिखा है:

“जिन्हें आँखों ने देखा नहीं
    और कानों ने सुना नहीं;
जहाँ मनुष्य की बुद्धि तक कभी नहीं पहुँची ऐसी बातें
    उनके हेतु प्रभु ने बनायी जो जन उसके प्रेमी होते।”(I)

10 किन्तु परमेश्वर ने उन ही बातों को आत्मा के द्वारा हमारे लिये प्रकट किया है।

आत्मा हर किसी बात को ढूँढ निकालती है यहाँ तक कि परमेश्वर की छिपी गहराइयों तक को। 11 ऐसा कौन है जो दूसरे मनुष्य के मन की बातें जान ले सिवाय उस व्यक्ति के उस आत्मा के जो उसके अपने भीतर ही है। इसी प्रकार परमेश्वर के विचारों को भी परमेश्वर की आत्मा को छोड़ कर और कौन जान सकता है। 12 किन्तु हमने तो सांसारिक आत्मा नहीं बल्कि वह आत्मा पायी है जो परमेश्वर से मिलती है ताकि हम उन बातों को जान सकें जिन्हें परमेश्वर ने हमें मुक्त रूप से दिया है।

13 उन ही बातों को हम मानवबुद्धि द्वारा विचारे गये शब्दों में नहीं बोलते बल्कि आत्मा द्वारा विचारे गये शब्दों से आत्मा की वस्तुओं की व्याख्या करते हुए बोलते हैं। 14 एक प्राकृतिक व्यक्ति परमेश्वर की आत्मा द्वारा प्रकाशित सत्य को ग्रहण नहीं करता क्योंकि उसके लिए वे बातें निरी मूर्खता होती हैं, वह उन्हें समझ नहीं पाता क्योंकि वे आत्मा के आधार पर ही परखी जा सकती हैं। 15 आध्यात्मिक मनुष्य सब बातों का न्याय कर सकता है किन्तु उसका न्याय कोई नहीं कर सकता। क्योंकि शास्त्र कहता है:

16 “प्रभु के मन को किसने जाना?
    उसको कौन सिखाए?”(J)

किन्तु हमारे पास यीशु का मन है।

मनुष्यों का अनुसरण उचित नहीं

किन्तु हे भाईयों, मैं तुम लोगों से वैसे बात नहीं कर सका जैसे आध्यात्मिक लोगों से करता हूँ। मुझे इसके विपरीत तुम लोगों से वैसे बात करनी पड़ी जैसे सांसारिक लोगों से की जाती है। यानी उनसे जो अभी मसीह में बच्चे हैं। मैंने तुम्हें पीने को दूध दिया, ठोस आहार नहीं; क्योंकि तुम अभी उसे खा नहीं सकते थे और न ही तुम इसे आज भी खा सकते हो क्योंकि तुम अभी तक सांसारिक हो। क्या तुम सांसारिक नहीं हो? जबकि तुममें आपसी ईर्ष्या और कलह मौजूद है। और तुम सांसारिक व्यक्तियों जैसा व्यवहार करते हो। जब तुममें से कोई कहता है, “मैं पौलुस का हूँ” और दूसरा कहता है, “मैं अपुल्लोस का हूँ” तो क्या तुम सांसारिक मनुष्यों का सा आचरण नहीं करते?

अच्छा तो बताओ अपुल्लोस क्या है और पौलुस क्या है? हम तो केवल वे सेवक हैं जिनके द्वारा तुमने विश्वास को ग्रहण किया है। हममें से हर एक ने बस वह काम किया है जो प्रभु ने हमें सौंपा था। मैंने बीज बोया, अपुल्लोस ने उसे सींचा; किन्तु उसकी बढ़वार तो परमेश्वर ने ही की। इस प्रकार न तो वह जिसने बोया, बड़ा है, और न ही वह जिसने उसे सींचा। बल्कि बड़ा तो परमेश्वर है जिसने उसकी बढ़वार की।

वह जो बोता है और वह जो सींचता है, दोनों का प्रयोजन समान है। सो हर एक अपने कर्मो के परिणामों के अनुसार ही प्रतिफल पायेगा। परमेश्वर की सेवा में हम सब सहकर्मी हैं।

तुम परमेश्वर के खेत हो। परमेश्वर के मन्दिर हो। 10 परमेश्वर के उस अनुग्रह के अनुसार जो मुझे दिया गया था, मैंने एक कुशल प्रमुख शिल्पी के रूप में नींव डाली किन्तु उस पर निर्माण तो कोई और ही करता है; किन्तु हर एक को सावधानी के साथ ध्यान रखना चाहिये कि वह उस पर निर्माण कैसे कर रहा है। 11 क्योंकि जो नींव डाली गई है वह स्वयं यीशु मसीह ही है और उससे भिन्न दूसरी नींव कोई डाल ही नहीं सकता। 12 यदि लोग उस नींव पर निर्माण करते हैं, फिर चाहे वे उसमें सोना लगायें, चाँदी लगायें, बहुमूल्य रत्न लगायें, लकड़ी लगायें, फूस लगायें या तिनकों का प्रयोग करें। 13 हर व्यक्ति का कर्म स्पष्ट रूप से दिखाई देगा। क्योंकि वह दिन[b] उसे उजागर कर देगा। क्योंकि वह दिन ज्वाला के साथ प्रकट होगा और वही ज्वाला हर व्यक्ति के कर्मो को परखेगी कि वे कर्म कैसे हैं। 14 यदि उस नींव पर किसी व्यक्ति के कर्मों की रचना टिकाऊ होगी 15 तो वह उसका प्रतिफल पायेगा और यदि किसी का कर्म उस ज्वाला में भस्म हो जायेगा तो उसे हानि उठानी होगी। किन्तु फिर भी वह स्वयं वैसे ही बच निकलेगा जैसे कोई आग लगे भवन में से भाग कर बच निकले।

16 क्या तुम नहीं जानते कि तुम लोग स्वयं परमेश्वर का मन्दिर हो और परमेश्वर की आत्मा तुममें निवास करती है? 17 यदि कोई परमेश्वर के मन्दिर को हानि पहुँचाता है तो परमेश्वर उसे नष्ट कर देगा। क्योंकि परमेश्वर का मन्दिर तो पवित्र है। हाँ, तुम ही तो वह मन्दिर हो।

18 अपने आपको मत छलो। यदि तुममें से कोई यह सोचता है कि इस युग के अनुसार वह बुद्धिमान है तो उसे बस तथाकथित मूर्ख ही बने रहना चाहिये ताकि वह सचमुच बुद्धिमान बन जाये; 19 क्योंकि परमेश्वर की दृष्टि में सांसारिक चतुरता मूर्खता है। शास्त्र कहता है, “परमेश्वर बुद्धिमानों को उनकी ही चतुरता में फँसा देता।” 20 और फिर, “प्रभु जानता है बुद्धिमानों के विचार सब व्यर्थ हैं।” 21 इसलिए मनुष्यों पर किसी को भी गर्व नहीं करना चाहिये क्योंकि यह सब कुछ तुम्हारा ही तो है। 22 फिर चाहे वह पौलुस हो, अपुल्लोस हो या पतरस चाहे संसार हो, जीवन हो या मृत्यु हो, चाहे ये आज की बातें हों या आने वाले कल की। सभी कुछ तुम्हारा ही तो है। 23 और तुम मसीह के हो और मसीह परमेश्वर का।

मसीह के संदेशवाहक

हमारे बारे में किसी व्यक्ति को इस प्रकार सोचना चाहिये कि हम लोग मसीह के सेवक हैं। परमेश्वर ने हमें और रहस्यपूर्ण सत्य सौंपे हैं। और फिर जिन्हें ये रहस्य सौंपे हैं, उन पर यह दायित्व भी है कि वे विश्वास योग्य हों। मुझे इसकी तनिक भी चिंता नहीं है कि तुम लोग मेरा न्याय करो या मनुष्यों की कोई और अदालत। मैं स्वयं भी अपना न्याय नहीं करता। क्योंकि मेरा मन स्वच्छ है। किन्तु इसी कारण मैं छूट नहीं जाता। प्रभु तो एक ही है जो न्याय करता है। इसलिए ठीक समय आने से पहले अर्थात् जब तक प्रभु न आ जाये, तब तक किसी भी बात का न्याय मत करो। वही अन्धेरे में छिपी बातों को उजागर करेगा और मन की प्रेरणा को प्रकट करेगा। उस समय परमेश्वर की ओर से हर किसी की उपयुक्त प्रशंसा होगी।

हे भाईयों, मैंने इन बातों को अपुल्लोस पर और स्वयं अपने पर तुम लोगों के लिये ही चरितार्थ किया है ताकि तुम हमारा उदाहरण देखते हुए उन बातों को न उलाँघ जाओ जो शास्त्र में लिखी हैं। ताकि एक व्यक्ति का पक्ष लेते हुए और दूसरे का विरोध करते हुए अहंकार में न भर जाओ। कौन कहता है कि तू किसी दूसरे से अधिक अच्छा है। तेरे पास अपना ऐसा क्या है? जो तुझे दिया नहीं गया है? और जब तुझे सब कुछ किसी के द्वारा दिया गया है तो फिर इस रूप में अभिमान किस बात का कि जैसे तूने किसी से कुछ पाया ही न हो।

तुम लोग सोचते हो कि जिस किसी वस्तु की तुम्हें आवश्यकता थी, अब वह सब कुछ तुम्हारे पास है। तुम सोचते हो अब तुम सम्पन्न हो गए हो। तुम हमारे बिना ही राजा बन बैठे हो। कितना अच्छा होता कि तुम सचमुच राजा होते ताकि तुम्हारे साथ हम भी राज्य करते। क्योंकि मेरा विचार है कि परमेश्वर ने हम प्रेरितों को कर्म-क्षेत्र में उन लोगों के समान सबसे अंत में स्थान दिया है जिन्हें मृत्यु-दण्ड दिया जा चुका है। क्योंकि हम समूचे संसार, स्वर्गदूतों और लोगों के सामने तमाशा बने हैं। 10 हम मसीह के लिये मूर्ख बने हैं किन्तु तुम लोग मसीह में बहुत बुद्धिमान हो। हम दुर्बल हैं किन्तु तुम तो बहुत सबल हो। तुम सम्मानित हो और हम अपमानित। 11 इस घड़ी तक हम तो भूखे-प्यासे हैं। फटे-पुराने चिथड़े पहने हैं। हमारे साथ बुरा व्यवहार किया जाता है। हम बेघर हैं। 12 अपने हाथों से काम करते हुए हम मेहनत मज़दूरी करते हैं। 13 गाली खा कर भी हम आशीर्वाद देते हैं। सताये जाने पर हम उसे सहते हैं। जब हमारी बदनामी हो जाती है, हम तब भी मीठा बोलते हैं। हम अभी भी जैसे इस दुनिया का मल-फेन और कूड़ा कचरा बने हुए हैं।

14 तुम्हें लज्जित करने के लिये मैं यह नहीं लिख रहा हूँ। बल्कि अपने प्रिय बच्चों के रूप में तुम्हें चेतावनी दे रहा हूँ। 15 क्योंकि चाहे तुम्हारे पास मसीह में तुम्हारे दसियों हजार संरक्षक मौजूद हैं, किन्तु तुम्हारे पिता तो अनेक नहीं हैं। क्योंकि सुसमाचार द्वारा मसीह यीशु में मैं तुम्हारा पिता बना हूँ। 16 इसलिए तुमसे मेरा आग्रह है, मेरा अनुकरण करो। 17 मैंने इसीलिए तिमुथियुस को तुम्हारे पास भेजा है। वह प्रभु में स्थित मेरा प्रिय एवम् विश्वास करने योग्य पुत्र है। यीशु मसीह में मेरे आचरणों की वह तुम्हें याद दिलायेगा। जिनका मैंने हर कहीं, हर कलीसिया में उपदेश दिया है।

18 कुछ लोग अंधकार में इस प्रकार फूल उठे हैं जैसे अब मुझे तुम्हारे पास कभी आना ही न हो। 19 अस्तु यदि परमेश्वर ने चाहा तो शीघ्र ही मैं तुम्हारे पास आऊँगा और फिर अहंकार में फूले उन लोगों की मात्र वाचालता को नहीं बल्कि उनकी शक्ति को देख लूँगा। 20 क्योंकि परमेश्वर का राज्य वाचालता पर नहीं, शक्ति पर टिका है। 21 तुम क्या चाहते हो: हाथ में छड़ी थामे मैं तुम्हारे पास आऊँ या कि प्रेम और कोमल आत्मा साथ में लाऊँ?

कलीसिया में दुराचार

सचमुच ऐसा बताया गया है कि तुम लोगों में दुराचार फैला हुआ है। ऐसा दुराचार-व्यभिचार तो अधर्मियों तक में नहीं मिलता। जैसे कोई तो अपनी विमाता तक के साथ सहवास करता है। और फिर तुम लोग अभिमान में फूले हुए हो। किन्तु क्या तुम्हें इसके लिये दुखी नहीं होना चाहिये? जो कोई ऐसा दुराचार करता है उसे तो तुम्हें अपने बीच से निकाल बाहर करना चाहिये था। मैं यद्यपि शारीरिक रूप से तुम्हारे बीच नहीं हूँ किन्तु आत्मिक रूप से तो वहीं उपस्थित हूँ। और मानो वहाँ उपस्थित रहते हुए जिसने ऐसे बुरे काम किये हैं, उसके विरुद्ध मैं अपना यह निर्णय दे चुका हूँ कि जब तुम मेरे साथ हमारे प्रभु यीशु के नाम में मेरी आत्मा और हमारे प्रभु यीशु की शक्ति के साथ एकत्रित होगे तो ऐसे व्यक्ति को उसके पापपूर्ण मानव स्वभाव को नष्ट कर डालने के लिये शैतान को सौंप दिया जायेगा ताकि प्रभु के दिन उसकी आत्मा का उद्धार हो सके।

तुम्हारा यह बड़बोलापन अच्छा नहीं है। तुम इस कहावत को तो जानते ही हो, “थोड़ा सा ख़मीर आटे के पूरे लौंदे को खमीरमय कर देता है।” पुराने ख़मीर से छुटकारा पाओ ताकि तुम आटे का नया लौंदा बन सको। तुम तो बिना ख़मीर वाली फ़सह की रोटी के समान हो। हमें पवित्र करने के लिये मसीह को फ़सह के मेमने के रूप में बलि चढ़ा दिया गया। इसलिए आओ हम अपना फ़सह पर्व बुराई और दुष्टता से युक्त पुराने ख़मीर की रोटी से नहीं बल्कि निष्ठा और सत्य से युक्त बिना ख़मीर की रोटी से मनायें।

अपने पिछले पत्र में मैंने लिखा था कि तुम्हें उन लोगों से अपना नाता नहीं रखना चाहिए जो व्यभिचारी हैं। 10 मेरा यह प्रयोजन बिलकुल नहीं था कि तुम इस दुनिया के व्यभिचारियों, लोभियों, ठगों या मूर्ति-पूजकों से कोई सम्बन्ध ही मत रखो। ऐसा होने पर तो तुम्हें इस संसार से ही निकल जाना होगा। 11 किन्तु मैंने तुम्हें जो लिखा है, वह यह है कि किसी ऐसे व्यक्ति से नाता मत रखो जो अपने आपको मसीही बन्धु कहला कर भी व्यभिचारी, लोभी, मूर्तिपूजक चुगलखोर, पियक्कड़ या एक ठग है। ऐसे व्यक्ति के साथ तो भोजन भी ग्रहण मत करो।

12 जो लोग बाहर के हैं, कलीसिया के नहीं, उनका न्याय करने का भला मेरा क्या काम। क्या तुम्हें उन ही का न्याय नहीं करना चाहिये जो कलीसिया के भीतर के हैं? 13 कलीसिया के बाहर वालों का न्याय तो परमेश्वर करेगा। शास्त्र कहता है: “तुम पाप को अपने बीच से बाहर निकाल दो।”(K)

आपसी विवादों का निबटारा

क्या तुममें से कोई ऐसा है जो अपने साथी के साथ कोई झगड़ा होने पर परमेश्वर के पवित्र पुरुषों के पास न जा कर अधर्मी लोगों की अदालत में जाने का साहस करता हो? अथवा क्या तुम नहीं जानते कि परमेश्वर के पवित्र पुरुष ही जगत का न्याय करेंगे? और जब तुम्हारे द्वारा सारे संसार का न्याय किया जाना है तो क्या अपनी इन छोटी-छोटी बातों का न्याय करने योग्य तुम नहीं हो? क्या तुम नहीं जानते कि हम स्वर्गदूतों का भी न्याय करेंगे? फिर इस जीवन की इन रोज़मर्राह की छोटी मोटी बातो का तो कहना ही क्या। यदि हर दिन तुम्हारे बीच कोई न कोई विवाद रहता ही है तो क्या न्यायाधीश के रूप में तुम ऐसे व्यक्तियों की नियुक्ति करोगे जिनका कलीसिया में कोई स्थान नहीं है। यह मैं तुमसे इसलिए कह रहा हूँ कि तुम्हें कुछ लाज आये। क्या स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि तुम्हारे बीच कोई ऐसा बुद्धिमान पुरुष है ही नहीं जो अपने मसीही भाइयों के आपसी झगड़े सुलझा सके? क्या एक भाई कभी अपने दूसरे भाई से मुकदमा लड़ता है! और तुम तो अविश्वासियों के सामने ऐसा कर रहे हो।

वास्तव में तुम्हारी पराजय तो इसी में हो चुकी कि तुम्हारे बीच आपस में कानूनी मुकदमे हैं। इसके स्थान पर तुम आपस में अन्याय ही क्यों नहीं सह लेते? अपने आपको क्यों नहीं लुट जाने देते। तुम तो स्वयं अन्याय करते हो और अपने ही मसीही भाइयों को लूटते हो!

अथवा क्या तुम नहीं जानते कि बुरे लोग परमेश्वर के राज्य का उत्तराधिकार नहीं पायेंगे? अपने आप को मूर्ख मत बनाओ। यौनाचार करने वाले, मूर्ति पूजक, व्यभिचारी, गुदा-भंजन कराने वाले, लौंडेबाज़, 10 लुटेरे, लालची, पियक्कड़, चुगलखोर और ठग परमेश्वर के राज्य के उत्तराधिकारी नहीं होंगे। 11 तुममें से कुछ ऐसे ही थे। किन्तु अब तुम्हें धोया गया और पवित्र कर दिया है। तुम्हें परमेश्वर की सेवा में अर्पित कर दिया गया है। प्रभु यीशु मसीह के नाम और हमारे परमेश्वर के आत्मा के द्वारा उन्हें धर्मी करार दिया जा चुका है।

अपने शरीर को परमेश्वर की महिमा में लगाओ

12 “मैं कुछ भी करने को स्वतन्त्र हूँ।” किन्तु हर कोई बात हितकर नहीं होती। हाँ! “मैं सब कुछ करने को स्वतन्त्र हूँ।” किन्तु मैं अपने पर किसी को भी हावी नहीं होने दूँगा। 13 कहा जाता है, “भोजन पेट के लिये और पेट भोजन के लिये है।” किन्तु परमेश्वर इन दोनों को ही समाप्त कर देगा। और हमारे शरीर भी तो यौन-अनाचार के लिये नहीं हैं बल्कि प्रभु की सेवा के लिये हैं। और प्रभु हमारी देह के कल्याण के लिये है। 14 परमेश्वर ने केवल प्रभु को ही पुनर्जीवित नहीं किया बल्कि अपनी शक्ति से वह मृत्यु से हम सब को भी जिला उठायेगा। 15 क्या तुम नहीं जानते कि तुम्हारे शरीर स्वयं यीशु मसीह से जुड़े हैं? तो क्या मुझे उन्हें, जो मसीह के अंग हैं, किसी वेश्या के अंग बना देना चाहिये? 16 निश्चय ही नहीं। अथवा क्या तुम यह नहीं जानते, कि जो अपने आपको वेश्या से जोड़ता है, वह उसके साथ एक देह हो जाता है। शास्त्र में कहा गया है: “क्योंकि वे दोनों एक देह हो जायेंगे।”(L) 17 किन्तु वह जो अपनी लौ प्रभु से लगाता है, उसकी आत्मा में एकाकार हो जाता है।

18 यौनाचार से दूर रहो। दूसरे सभी पाप जिन्हें एक व्यक्ति करता है, उसके शरीर से बाहर होते हैं किन्तु ऐसा व्यक्ति जो व्यभिचार करता है वह तो अपने शरीर के ही विरुद्ध पाप करता है। 19 अथवा क्या तुम नहीं जानते कि तुम्हारे शरीर उस पवित्र आत्मा के मन्दिर हैं जिसे तुमने परमेश्वर से पाया है और जो तुम्हारे भीतर निवास करता है। और वह आत्मा तुम्हारा अपना नहीं है, 20 क्योंकि परमेश्वर ने तुम्हें कीमत चुका कर खरीदा है। इसलिए अपने शरीरों के द्वारा परमेश्वर को महिमा प्रदान करो।

विवाह

अब उन बातों के बारे में जो तुमने लिखीं थीं: अच्छा यह है कि कोई पुरुष किसी स्त्री को छुए ही नहीं। किन्तु यौन अनैतिकता की घटनाओं की सम्भावनाओं के कारण हर पुरुष की अपनी पत्नी होनी चाहिये और हर स्त्री का अपना पति। पति को चाहिये कि पत्नी के रूप में जो कुछ पत्नी का अधिकार बनता है, उसे दे। और इसी प्रकार पत्नी को भी चाहिये कि पति को उसका यथोचित प्रदान करे। अपने शरीर पर पत्नी का कोई अधिकार नहीं हैं बल्कि उसके पति का है। और इसी प्रकार पति का भी उसके अपने शरीर पर कोई अधिकार नहीं है, बल्कि उसकी पत्नी का है। अपने आप को प्रार्थना में समर्पित करने के लिये थोड़े समय तक एक दूसरे से समागम न करने की आपसी सहमती को छोड़कर, एक दूसरे को संभोग से वंचित मत करो। फिर आत्म-संयम के अभाव के कारण कहीं शैतान तुम्हें किसी परीक्षा में न डाल दे, इसलिए तुम फिर समागम कर लो। मैं यह एक छूट के रूप में कह रहा हूँ, आदेश के रूप में नहीं। मैं तो चाहता हूँ सभी लोग मेरे जैसे होते। किन्तु हर व्यक्ति को परमेश्वर से एक विशेष बरदान मिला है। किसी का जीने का एक ढंग है तो दूसरे का दूसरा।

अब मुझे अविवाहितों और विधवाओं के बारे में यह कहना है:यदि वे मेरे समान अकेले ही रहें तो उनके लिए यह उत्तम रहेगा। किन्तु यदि वे अपने आप पर काबू न रख सकें तो उन्हें विवाह कर लेना चाहिये; क्योंकि वासना की आग में जलते रहने से विवाह कर लेना अच्छा है।

10 अब जो विवाहित हैं उनको मेरा यह आदेश है, (यद्यपि यह मेरा नहीं है, बल्कि प्रभु का आदेश है) कि किसी पत्नी को अपना पति नहीं त्यागना चाहिये। 11 किन्तु यदि वह उसे छोड़ ही दे तो उसे फिर अनब्याहा ही रहना चाहिये या अपने पति से मेल-मिलाप कर लेना चाहिये। और ऐसे ही पति को भी अपनी पत्नी को छोड़ना नहीं चाहिये।

12 अब शेष लोगों से मेरा यह कहना है, यह मैं कह रहा हूँ न कि प्रभु यदि किसी मसीही भाई की कोई एैसी पत्नी है जो इस मत में विश्वास नहीं रखती और उसके साथ रहने को सहमत है तो उसे त्याग नहीं देना चाहिये। 13 ऐसे ही यदि किसी स्त्री का कोई ऐसा पति है जो पंथ का विश्वासी नहीं है किन्तु उसके साथ रहने को सहमत है तो उस स्त्री को भी अपना पति त्यागना नहीं चाहिये। 14 क्योंकि वह अविश्वासी पति विश्वासी पत्नी से निकट संबन्धों के कारण पवित्र हो जाता है और इसी प्रकार वह अविश्वासिनी पत्नी भी अपने विश्वासी पति के निरन्तर साथ रहने से पवित्र हो जाती है। नहीं तो तुम्हारी संतान अस्वच्छ हो जाती किन्तु अब तो वे पवित्र हैं।

15 फिर भी यदि कोई अविश्वासी अलग होना चाहता है तो वह अलग हो सकता है। ऐसी स्थितियों में किसी मसीही भाई या बहन पर कोई बंधन लागू नहीं होगा। परमेश्वर ने हमें शांति के साथ रहने को बुलाया है। 16 हे पत्नियो, क्या तुम जानती हो? हो सकता है तुम अपने अविश्वासी पति को बचा लो।

जैसे हो, वैसे जिओ

17 प्रभु ने जिसको जैसा दिया है और जिसको जिस रूप में चुना है, उसे वैसे ही जीना चाहिये। सभी कलीसियों में मैं इसी का आदेश देता हूँ। 18 जब किसी को परमेश्वर के द्वारा बुलाया गया, तब यदि वह ख़तना युक्त था तो उसे अपना ख़तना छिपाना नहीं चाहिये। और किसी को ऐसी दशा में बुलाया गया जब वह बिना ख़तने के था तो उसका ख़तना कराना नहीं चाहिये। 19 ख़तना तो कुछ नहीं है, और न ही ख़तना नहीं होना कुछ है। बल्कि परमेश्वर के आदेशों का पालन करना ही सब कुछ है। 20 हर किसी को उसी स्थिति में रहना चाहिये, जिसमें उसे बुलाया गया है। 21 क्या तुझे दास के रूप में बुलाया गया है? तू इसकी चिंता मत कर। किन्तु यदि तू स्वतन्त्र हो सकता है तो आगे बढ़ और अवसर का लाभ उठा। 22 क्योंकि जिसे प्रभु के दास के रूप में बुलाया गया, वह तो प्रभु का स्वतन्त्र व्यक्ति है। इसी प्रकार जिसे स्वतन्त्र व्यक्ति के रूप में बुलाया गया, वह मसीह का दास है। 23 परमेश्वर ने कीमत चुका कर तुम्हें खरीदा है। इसलिए मनुष्यों के दास मत बनो। 24 हे भाईयों, तुम्हें जिस भी स्थिति में बुलाया गया है, परमेश्वर के सामने उसी स्थिति में रहो।

विवाह करने सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर

25 अविवाहितों के सम्बन्ध में प्रभु की ओर से मुझे कोई आदेश नहीं मिला है। इसीलिए मैं प्रभु की दया प्राप्त करके विष्वसनीय होने के कारण अपनी राय देता हूँ। 26 मैं सोचता हूँ कि इस वर्तमान संकट के कारण यही अच्छा है कि कोई व्यक्ति मेरे समान ही अकेला रहे। 27 यदि तुम विवाहित हो तो उससे छुटकारा पाने का यत्न मत करो। यदि तुम स्त्री से मुक्त हो तो उसे खोजो मत। 28 किन्तु यदि तुम्हारा जीवन विवाहित है तो तुमने कोई पाप नहीं किया है। और यदि कोई कुँवारी कन्या विवाह करती है, तो कोई पाप नहीं करती है किन्तु ऐसे लोग शारीरिक कष्ट उठायेंगे जिनसे मैं तुम्हें बचाना चाहता हूँ।

29 हे भाइयो, मैं तो यही कह रहा हूँ, वक्त बहुत थोड़ा है। इसलिए अब से आगे, जिनके पास पत्नियाँ हैं, वे ऐसे रहें, मानो उनके पास पत्नियाँ हैं ही नहीं। 30 और वे जो बिलख रहे हैं, वे ऐसे रहें, मानो कभी दुखी ही न हुए हों। और जो आनान्दित हैं, वे ऐसे रहें, मानो प्रसन्न ही न हुए हों। और वे जो वस्तुएँ मोल लेते हैं, ऐसे रहें मानो उनके पास कुछ भी न हो। 31 और जो सांसारिक सुख-विलासों का भोग कर रहे हैं, वे ऐसे रहें, मानों वे वस्तुएँ उनके लिए कोई महत्व नहीं रखतीं। क्योंकि यह संसार अपने वर्तमान स्वरूप में नाषमान है।

32 मैं चाहता हूँ आप लोग चिंताओं से मुक्त रहें। एक अविवाहित व्यक्ति प्रभु सम्बन्धी विषयों के चिंतन में लगा रहता है कि वह प्रभु को कैसे प्रसन्न करे। 33 किन्तु एक विवाहित व्यक्ति सांसारिक विषयों में ही लिप्त रहता है कि वह अपनी पत्नी को कैसे प्रसन्न कर सकता है। 34 इस प्रकार उसका व्यक्तित्व बँट जाता है। और ऐसे ही किसी अविवाहित स्त्री या कुँवारी कन्या को जिसे बस प्रभु सम्बन्धी विषयों की ही चिंता रहती है। जिससे वह अपने शरीर और अपनी आत्मा से पवित्र हो सके। किन्तु एक विवाहित स्त्री सांसारिक विषयभोगों में इस प्रकार लिप्त रहती है कि वह अपने पति को रिझाती रह सके। 35 ये मैं तुमसे तुम्हारे भले के लिये ही कह रहा हूँ तुम पर प्रतिबन्ध लगाने के लिये नहीं। बल्कि अच्छी व्यवस्था को हित में और इसलिए भी कि तुम चित्त की चंचलता के बिना प्रभु को समर्पित हो सको।

36 यदि कोई सोचता है कि वह अपनी युवा हो चुकी कुँवारी प्रिया के प्रति उचित नहीं कर रहा है और यदि उसकी कामभावना तीव्र है, तथा दोनों को ही आगे बढ़ कर विवाह कर लेने की आवश्यकता है, तो जैसा वह चाहता है, उसे आगे बढ़ कर वैसा कर लेना चाहिये। वह पाप नहीं कर रहा है। उन्हें विवाह कर लेना चाहिये। 37 किन्तु जो अपने मन में बहुत पक्का है और जिस पर कोई दबाव भी नहीं है, बल्कि जिसका अपनी इच्छाओं पर भी पूरा बस है और जिसने अपने मन में पूरा निश्चय कर लिया है कि वह अपनी प्रिया से विवाह नहीं करेगा तो वह अच्छा ही कर रहा है। 38 सो वह जो अपनी प्रिया से विवाह कर लेता है, अच्छा करता है और जो उससे विवाह नहीं करता, वह और भी अच्छा करता है।

39 जब तक किसी स्त्री का पति जीवित रहता है, तभी तक वह विवाह के बन्धन में बँधी होती है किन्तु यदि उसके पति देहान्त हो जाता है, तो जिसके साथ चाहे, विवाह करने, वह स्वतन्त्र है किन्तु केवल प्रभु में। 40 पर यदि जैसी वह है, वैसी ही रहती है तो अधिक प्रसन्न रहेगी। यह मेरा विचार है। और मैं सोचता हूँ कि मुझमें भी परमेश्वर के आत्मा का ही निवास है।

चढ़ावे का भोजन

अब मूर्तियों पर चढ़ाई गई बलि के विषय में हम यह जानते हैं, “हम सभी ज्ञानी हैं।” ज्ञान लोगों को अहंकार से भर देता है। किन्तु प्रेम से व्यक्ति अधिक शक्तिशाली बनता है। यदि कोई सोचे कि वह कुछ जानता है तो जिसे जानना चाहिये उसके बारे में तो उसने अभी कुछ जाना ही नहीं। यदि कोई परमेश्वर को प्रेम करता है तो वह परमेश्वर के द्वारा जाना जाता है।

सो मूर्तियों पर चढ़ाये गये भोजन के बारे में हम जानते हैं कि इस संसार में वास्तविक प्रतिमा कहीं नहीं है। और यह कि परमेश्वर केवल एक ही है। और धरती या आकाश में यद्यपि तथाकथित बहुत से “देवता” हैं, बहुत से “प्रभु” हैं। किन्तु हमारे लिये तो एक ही परमेश्वर है, हमारा पिता। उसी से सब कुछ आता है। और उसी के लिये हम जीते हैं। प्रभु केवल एक है, यीशु मसीह। उसी के द्वारा सब वस्तुओं का अस्तित्व है और उसी के द्वारा हमारा जीवन है।

किन्तु यह ज्ञान हर किसी के पास नहीं है। कुछ लोग जो अब तक मूर्ति उपासना के आदी हैं, ऐसी वस्तुएँ खाते हैं और सोचते है जैसे मानो वे वस्तुएँ मूर्ति का प्रसाद हों। उनके इस कर्म से उनकी आत्मा निर्बल होने के कारण दूषित हो जाती है। किन्तु वह प्रसाद तो हमें परमेश्वर के निकट नहीं ले जायेगा। यदि हम उसे न खायें तो कुछ घट नहीं जाता और यदि खायें तो कुछ बढ़ नहीं जाता।

सावधान रहो! कहीं तुम्हारा यह अधिकार उनके लिये, जो दुर्बल हैं, पाप में गिरने का कारण न बन जाये। 10 क्योंकि दुर्बल मन का कोई व्यक्ति यदि तुझ जैसे इस विषय के जानकार को मूर्ति वाले मन्दिर में खाते हुए देखता है तो उसका दुर्बल मन क्या उस हद तक नहीं भटक जायेगा कि वह मूर्ति पर बलि चढ़ाई गयी वस्तुओं को खाने लगे। 11 तेरे ज्ञान से, दुर्बल मन के व्यक्ति का तो नाश ही हो जायेगा तेरे उसी बन्धु का, जिसके लिए मसीह ने जान दे दी। 12 इस प्रकार अपने भाइयों के विरुद्ध पाप करते हुए और उनके दुर्बल मन को चोट पहुँचाते हुए तुम लोग मसीह के विरुद्ध पाप कर रहे हो। 13 इसलिए यदि भोजन मेरे भाई को पाप की राह पर बढ़ाता है तो मैं फिर कभी भी माँस नहीं खाऊँगा ताकि मैं अपने भाई के लिए, पाप करने की प्रेरणा न बनूँ!

पौलुस भी दूसरे प्रेरितों जैसा ही है

क्या मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ? क्या मैं भी एक प्रेरित नहीं हूँ? क्या मैंने हमारे प्रभु यीशु मसीह के दर्शन नहीं किये हैं? क्या तुम लोग प्रभु में मेरे ही कर्म का परिणाम नहीं हो? चाहे दूसरों के लिये मैं प्रेरित न भी होऊँ—तो भी मैं तुम्हारे लियेतो प्रेरित हूँ ही। क्योंकि तुम एक ऐसी मुहर के समान हो जो प्रभु में मेरे प्रेरित होने को प्रमाणित करती है।

वे लोग जो मेरी जाँच करना चाहते हैं, उनके प्रति आत्मरक्षा में मेरा उत्तर यह है: क्या मुझे खाने पीने का अधिकार नहीं है? क्या मुझे यह अधिकार नहीं कि मैं अपनी विश्वासिनी पत्नी को अपने साथ ले जाऊँ? जैसा कि दूसरे प्रेरित, प्रभु के बन्धु और पतरस ने किया है। अथवा क्या बरनाबास और मुझे ही अपनी आजीविका कमाने के लिये कोई काम करना चाहिए? सेना में ऐसा कौन होगा जो अपने ही खर्च पर एक सिपाही के रूप में काम करे। अथवा कौन हौगा जो अंगूर की बगीया लगाकर भी उसका फल न चखे? या कोई ऐसा है जो भेड़ों के रेवड़ की देखभाल तो करता हो पर उनका थोड़ा बहुत भी दूध न पीता हो?

क्या मैं मानवीय चिन्तन के रूप में ही ऐसा कह रहा हूँ? आखिरकार क्या व्यवस्था का विधान भी ऐसा ही नहीं कहता? मूसा की व्यवस्था के विधान में लिखा है, “खलिहान में बैल का मुँह मत बाँधो।”(M) परमेश्वर क्या केवल बैलों के बारे में बता रहा है? 10 नहीं! निश्चित रूप से वह इसे क्या हमारे लिये नहीं बता रहा? हाँ, यह हमारे लिये ही लिखा गया था। क्योंकि खेत जोतने वाला किसी आशा से ही खेत जोतने और खलिहान में भूसे से अनाज अलग करने वाला फसल का कुछ भाग पाने की आशा तो रखेगा ही। 11 फिर यदि हमने तुम्हारे हित के लिये आध्यात्मिकता के बीज बोये हैं तो हम तुमसे भौतिक वस्तुओं की फसल काटना चाहते हैं, यह क्या कोई बहुत बड़ी बात है? 12 यदि दूसरे लोग तुमसे भौतिक वस्तुएँ पाने का अधिकार रखते हैं तो हमारा तो तुम पर क्या और भी अधिक अधिकार नहीं है? किन्तु हमने इस अधिकार का उपयोग नहीं किया है। बल्कि हम तो सब कुछ सहते रहे हैं ताकि हम मसीह सुसमाचार के मार्ग में कोई बाधा न डाल दें। 13 क्या तुम नहीं जानते कि जो लोग मन्दिर में काम करते हैं, वे अपना भोजन मन्दिर से ही पाते हैं। और जो नियमित रूप से वेदी की सेवा करते हैं, वेदी के चढ़ावे में उनका हिस्सा होता है? 14 इसी प्रकार प्रभु ने व्यवस्था दी है कि सुसमाचार के प्रचारकों की आजीविका सुसमाचार के प्रचार से ही होनी चाहिये।

15 किन्तु इन अधिकारों में से मैंने एक का भी कभी प्रयोग नहीं किया। और ये बातें मैंने इसलिए लिखी भी नहीं हैं कि ऐसा कुछ मेरे विषय में किया जाये। बजाय इसके कि कोई मुझ से उस बात को ही छीन ले जिसका मुझे गर्व है। इस से तो मैं मर जाना ही ठीक समझूँगा। 16 इसलिए यदि मैं सुसमाचार का प्रचार करता हूँ तो इसमें मुझे गर्व करने का कोई हेतु नहीं है क्योंकि मेरा तो यह कर्तव्य है। और यदि मैं सुसमाचार का प्रचार न करूँ तो मेरे लिए यह कितना बुरा होगा। 17 फिर यदि यह मैं अपनी इच्छा से करता हूँ तो मैं इसका फल पाने योग्य हूँ, किन्तु यदि अपनी इच्छा से नहीं बल्कि किसी नियुक्ति के कारण यह काम मुझे सौंपा गया है 18 तो फिर मेरा प्रतिफल काहे का। इसलिए जब मैं सुसमाचार का प्रचार करूँ तो बिना कोई मूल्य लिये ही उसे करूँ। ताकि सुसमाचार के प्रचार में जो कुछ पाने का मेरा अधिकार है, मैं उसका पूरा उपयोग न करूँ।

19 यद्यपि मैं किसी भी व्यक्ति के बन्धन में नहीं हूँ, फिर भी मैंने स्वयं को आप सब का सेवक बना लिया है। ताकि मैं अधिकतर लोगों को जीत सकूँ। 20 यहूदियों के लिये मैं एक यहूदी जैसा बना, ताकि मैं यहूदियों को जीत सकूँ। जो लोग व्यवस्था के विधान के अधीन हैं, उनके लिये मैं एक ऐसा व्यक्ति बना जो व्यवस्था के विधान के अधीन जैसा है। यद्यपि मैं स्वयं व्यवस्था के विधान के अधीन नहीं हूँ। यह मैंने इसलिए किया कि मैं व्यवस्था के विधान के अधीनों को जीत सकूँ। 21 मैं एक ऐसा व्यक्ति भी बना जो व्यवस्था के विधान को नहीं मानता। यद्यपि मैं परमेश्वर की व्यवस्था से रहित नहीं हूँ बल्कि मसीह की व्यवस्था के अधीन हूँ। ताकि मैं जो व्यवस्था के विधान को नहीं मानते हैं उन्हें जीत सकूँ। 22 जो दुर्बल हैं, उनके लिये मैं दुर्बल बना ताकि मैं दुर्बलों को जीत सकूँ। हर किसी के लिये मैं हर किसी के जैसा बना ताकि हर सम्भव उपाय से उनका उद्धार कर सकूँ। 23 यह सब कुछ मैं सुसमाचार के लिये करता हूँ ताकि इसके वरदानों में मेरा भी कुछ भाग हो।

24 क्या तुम लोग यह नहीं जानते कि खेल के मैदान में दौड़ते तो सभी धावक हैं किन्तु पुरस्कार किसी एक को ही मिलता है। एैसे दौड़ो कि जीत तुम्हारी ही हो! 25 किसी खेल प्रतियोगिता में प्रत्येक प्रतियोगी को हर प्रकार का आत्मसंयम करना होता है। वे एक नाशमान जयमाल से सम्मानित होने के लिये ऐसा करते हैं किन्तु हम तो एक अविनाशी मुकुट को पाने के लिये यह करते हैं। 26 इस प्रकार मैं उस व्यक्ति के समान दौड़ता हूँ जिसके सामने एक लक्ष्य है। मैं हवा में मुक्के नहीं मारता। 27 बल्कि मैं तो अपने शरीर को कठोर अनुशासन में तपा कर, उसे अपने वश में करता हूँ। ताकि कहीं ऐसा न हो जाय कि दूसरों को उपदेश देने के बाद परमेश्वर के द्वारा मैं ही व्यर्थ ठहरा दिया जाऊँ!

यहूदियों जैसे मत बनो

10 हे भाईयों, मैं चाहता हूँ कि तुम यह जान लो कि हमारे सभी पूर्वज बादल की छत्र छाया में सुरक्षा पूर्वक लाल सागर पार कर गए थे। उन सब को बादल के नीचे, समुद्र के बीच मूसा के अनुयायियों के रूप में बपतिस्मा दिया गया था। उन सभी ने समान आध्यात्मिक भोजन खाया था। और समान आध्यात्मिक जल पिया था क्योंकि वे अपने साथ चल रही उस आध्यात्मिक चट्टान से ही जल ग्रहण कर रहे थे। और वह चट्टान थी मसीह। किन्तु उनमें से अधिकांश लोगों से परमेश्वर प्रसन्न नहीं था, इसीलिए वे मरुभूमि में मारे गये।

ये बातें ऐसे घटीं कि हमारे लिये उदाहरण सिद्ध हों और हम बुरी बातों की कामना न करें जैसे उन्होंने की थी। मूर्ति-पूजक मत बनो, जैसे कि उनमें से कुछ थे। शास्त्र कहता है: “व्यक्ति खाने पीने के लिये बैठा और परस्पर आनन्द मनाने के लिए उठा।” सो आओ हम कभी व्यभिचार न करें जैसे उनमें से कुछ किया करते थे। इसी नाते उनमें से 23,000 व्यक्ति एक ही दिन मर गए। आओ हम मसीह[c] की परीक्षा न लें, जैसे कि उनमें से कुछ ने ली थी। परिणामस्वरूप साँपों के काटने से वे मर गए। 10 शिकवा शिकायत मत करो जैसे कि उनमें से कुछ किया करते थे और इसी कारण विनाश के स्वर्गदूत द्वारा मार डाले गए।

11 ये बातें उनके साथ ऐसे घटीं कि उदाहरण रहे। और उन्हें लिख दिया गया कि हमारे लिए जिन पर युगों का अन्त उतरा हुआ है, चेतावनी रहे। 12 इसलिए जो यह सोचता है कि वह दृढ़ता के साथ खड़ा है, उसे सावधान रहना चाहिये कि वह गिर न पड़े। 13 तुम किसी ऐसी परीक्षा में नहीं पड़े हो, जो मनुष्यों के लिये सामान्य नहीं है। परमेश्वर विश्वसनीय है। वह तुम्हारी सहन शक्ति से अधिक तुम्हें परीक्षा में नहीं पड़ने देगा। परीक्षा के साथ साथ उससे बचने का मार्ग भी वह तुम्हें देगा ताकि तुम परीक्षा को उत्तीर्ण कर सको।

14 हे मेरे प्रिय मित्रो, अंत में मैं कहता हूँ मूर्ति उपासना से दूर रहो। 15 तुम्हें समझदार समझ कर मैं ऐसा कह रहा हूँ। जो मैं कह रहा हूँ, उसे अपने आप परखो। 16 धन्यवाद का वह प्याला जिसके लिये हम धन्यवाद देते हैं, वह क्या मसीह के लहू में हमारी साझेदारी नहीं है? वह रोटी जिसे हम विभाजित करते हैं, क्या यीशु की देह में हमारी साझेदारी नहीं?

17 रोटी का होना एक ऐसा तथ्य है, जिसका अर्थ है कि हम सब एक ही शरीर से हैं। क्योंकि उस एक रोटी में ही हम सब साझेदार हैं।

18 उन इस्राएलियों के बारे में सोचो, जो बलि की वस्तुएँ खाते हैं। क्या वे उस वेदी के साझेदार नहीं हैं? 19 इस बात को मेरे कहने का प्रयोजन क्या है? क्या मैं यह कहना चाहता हूँ कि मूर्तियों पर चढ़ाया गया भोजन कुछ है या कि मूर्ति कुछ भी नहीं है। 20 बल्कि मेरी आशा तो यह है कि वे अधर्मी जो बलि चढ़ाते हैं, वे उन्हें परमेश्वर के लिये नहीं, बल्कि दुष्ट आत्माओं के लिये चढ़ाते हैं। और मैं नहीं चाहता कि तुम दुष्टात्माओं के साझेदार बनो। 21 तुम प्रभु के कटोरे और दुष्टात्माओं के कटोरे में से एक साथ नहीं पी सकते। तुम प्रभु के भोजन की चौकी और दुष्टात्माओं के भोजन की चौकी, दोनों में एक साथ हिस्सा नहीं बटा सकते। 22 क्या हम प्रभु को चिढ़ाना चाहते हैं? क्या जितना शक्तिशाली वह है, हम उससे अधिक शक्तिशाली हैं?

अपनी स्वतन्त्रता का प्रयोग परमेश्वर की महिमा के लिये करो

23 जैसा कि कहा गया है कि, “हम कुछ भी करने के लिये स्वतन्त्र हैं।” पर सब कुछ हितकारी तो नहीं है। “हम कुछ भी करने के लिए स्वतन्त्र हैं” किन्तु हर किसी बात से विश्वास सुदृढ़ तो नहीं होता। 24 किसी को भी मात्र स्वार्थ की ही चिन्ता नहीं करनी चाहिये बल्कि औरों के परमार्थ की भी सोचनी चाहिये।

25 बाजार में जो कुछ बिकता है, अपने अन्तर्मन के अनुसार वह सब कुछ खाओ। उसके बारे में कोई प्रश्न मत करो। 26 क्योंकि शास्त्र कहता है: “यह धरती और इस पर जो कुछ है, सब प्रभु का है।”(N)

27 यदि अविश्वासियों में से कोई व्यक्ति तुम्हें भोजन पर बुलाये और तुम वहाँ जाना चाहो तो तुम्हारे सामने जो भी परोसा गया है, अपने अन्तर्मन के अनुसार सब खाओ। कोई प्रश्न मत पूछो। 28 किन्तु यदि कोई तुम लोगों को यह बताये, “यह देवता पर चढ़ाया गया चढ़ावा है” तो जिसने तुम्हें यह बताया है, उसके कारण और अपने अन्तर्मन के कारण उसे मत खाओ।

29 मैं जब अन्तर्मन कहता हूँ तो मेरा अर्थ तुम्हारे अन्तर्मन से नहीं बल्कि उस दूसरे व्यक्ति के अन्तर्मन से है। एकमात्र यही कारण है। क्योंकि मेरी स्वतन्त्रता भला दूसरे व्यक्ति के अन्तर्मन द्वारा लिये गये निर्णय से सीमित क्यों रहे? 30 यदि मैं धन्यवाद देकर, भोजन में हिस्सा लेता हूँ तो जिस वस्तु के लिये मैं परमेश्वर को धन्यवाद देता हूँ, उसके लिये मेरी आलोचना नहीं की जानी चाहिये।

31 इसलिए चाहे तुम खाओ, चाहे पिओ, चाहे कुछ और करो, बस सब कुछ परमेश्वर की महिमा के लिये करो। 32 यहूदियों के लिये या ग़ैर यहूदियों के लिये या जो परमेश्वर के कलीसिया के हैं, उनके लिये कभी बाधा मत बनो 33 जैसे स्वयं हर प्रकार से हर किसी को प्रसन्न रखने का जतन करता हूँ, और बिना यह सोचे कि मेरा स्वार्थ क्या है, परमार्थ की सोचता हूँ ताकि उनका उद्धार हो।

11 सो तुम लोग वैसे ही मेरा अनुसरण करो जैसे मैं मसीह का अनुसरण करता हूँ।

अधीन रहना

मैं तुम्हारी प्रशंसा करता हूँ। क्योंकि तुम मुझे हर समय याद करते रहते हो; और जो शिक्षाएँ मैंने तुम्हें दी हैं, उनका सावधानी से पालन कर रहे हो। पर मैं चाहता हूँ कि तुम यह जान लो कि स्त्री का सिर पुरुष है, पुरुष का सिर मसीह है, और मसीह का सिर परमेश्वर है।

हर ऐसा पुरुष जो सिर ढक कर प्रार्थना करता है या परमेश्वर की ओर से बोलता है, वह परमेश्वर का अपमान करता है जो अपना सिर है। पर हर ऐसी स्त्री जो बिना सिर ढके प्रार्थना करती है या जनता में परमेश्वर की ओर से बोलती है, वह अपने पुरुष का अपमान करती है जो उसका सिर है। वह ठीक उस स्त्री के समान है जिसने अपना सिर मुँडवा दिया है। यदि कोई स्त्री अपना सिर नहीं ढकती तो वह अपने बाल भी क्यों नहीं मुँडवा लेती। किन्तु यदि स्त्री के लिये बाल मुँडवाना लज्जा की बात है तो उसे अपना सिर भी ढकना चाहिये।

किन्तु पुरुष के लिये अपना सिर ढकना उचित नहीं है क्योंकि वह परमेश्वर के स्वरूप और महिमा का प्रतिबिम्ब है। किन्तु एक स्त्री अपने पुरुष की महिमा को प्रतिबिंबित करती है। मैं ऐसा इसलिए कहता हूँ क्योंकि पुरुष किसी स्त्री से नहीं, बल्कि स्त्री पुरुष से बनी है। पुरुष स्त्री के लिये नहीं रचा गया बल्कि स्त्री की रचना पुरुष के लिये की गयी है। 10 इसलिए परमेश्वर ने उसे जो अधिकार दिया है, उसके प्रतीक रूप में स्त्री को चाहिये कि वह अपना सिर ढके। उसे स्वर्गदूतों के कारण भी ऐसा करना चाहिये।

11 फिर भी प्रभु में न तो स्त्री पुरुष से स्वतन्त्र है और न ही पुरुष स्त्री से। 12 क्योंकि जैसे पुरुष से स्त्री आयी, वैसे ही स्त्री ने पुरुष को जन्म दिया। किन्तु सब कोई परमेश्वर से आते हैं। 13 स्वयं निर्णय करो। क्या जनता के बीच एक स्त्री का सिर उघाड़े परमेश्वर की प्रार्थना करना अच्छा लगता है? 14 क्या स्वयं प्रकृति तुम्हें नहीं सिखाती कि यदि कोई पुरुष अपने बाल लम्बे बढ़ने दे तो यह उसके लिए लज्जा की बात है, 15 और यह कि एक स्त्री के लिए यही उसकी शोभा है? वास्तव में उसे उसके लम्बे बाल एक प्राकृतिक ओढ़नी के रूप में दिये गये हैं। 16 अब इस पर यदि कोई विवाद करना चाहे तो मुझे कहना होगा कि न तो हमारे यहाँ कोई एैसी प्रथा है और न ही परमेश्वर की कलीसिया में।

प्रभु का भोज

17 अब यह अगला आदेश देते हुए मैं तुम्हारी प्रशंसा नहीं कर रहा हूँ क्योंकि तुम्हारा आपस में मिलना तुम्हारा भला करने की बजाय तुम्हें हानि पहुँचा रहा है। 18 सबसे पहले यह कि मैंने सुना है कि तुम लोग सभा में जब परस्पर मिलते हो तो तुम्हारे बीच मतभेद रहता है। कुछ अंश तक मैं इस पर विश्वास भी करता हूँ। 19 आखिरकार तुम्हारे बीच मतभेद भी होंगे ही। जिससे कि तुम्हारे बीच में जो उचित ठहराया गया है, वह सामने आ जाये।

20 सो जब तुम आपस में इकट्ठे होते हो तो सचमुच प्रभु का भोज पाने के लिये नहीं इकट्ठे होते, 21 बल्कि जब तुम भोज ग्रहण करते हो तो तुममें से हर कोई आगे बढ़ कर अपने ही खाने पर टूट पड़ता है। और बस कोई व्यक्ति तो भूखा ही चला जाता है, जब कि कोई व्यक्ति अत्यधिक खा-पी कर मस्त हो जाता है। 22 क्या तुम्हारे पास खाने पीने के लिये अपने घर नहीं हैं। अथवा इस प्रकार तुम परमेश्वर की कलीसिया का अनादर नहीं करते? और जो दीन है उनका तिरस्कार करने की चेष्टा नहीं करते? मैं तुमसे क्या कहूँ? इसके लिये क्या मैं तुम्हारी प्रशंसा करूँ। इस विषय में मैं तुम्हारी प्रशंसा नहीं करूँगा।

23 क्योंकि जो सीख मैंने तुम्हें दी है, वह मुझे प्रभु से मिली थी। प्रभु यीशु ने उस रात, जब उसे मरवा डालने के लिये पकड़वाया गया था, एक रोटी ली 24 और धन्यवाद देने के बाद उसने उसे तोड़ा और कहा, “यह मेरा शरीर है, जो तुम्हारे लिए है। मुझे याद करने के लिये तुम ऐसा ही किया करो।”

25 उनके भोजन कर चुकने के बाद इसी प्रकार उसने प्याला उठाया और कहा, “यह प्याला मेरे लहू के द्वारा किया गया एक नया वाचा है। जब कभी तुम इसे पिओ तभी मुझे याद करने के लिये ऐसा करो।” 26 क्योंकि जितनी बार भी तुम इस रोटी को खाते हो और इस प्याले को पीते हो, उतनी ही बार जब तक वह आ नहीं जाता, तुम प्रभु की मृत्यु का प्रचार करते हो।

27 अतः जो कोई भी प्रभु की रोटी या प्रभु के प्याले को अनुचित रीति से खाता पीता है, वह प्रभु की देह और उस के लहू के प्रति अपराधी होगा। 28 व्यक्ति को चाहिये कि वह पहले अपने को परखे और तब इस रोटी को खाये और इस प्याले को पिये। 29 क्योंकि प्रभु के देह का अर्थ समझे बिना जो इस रोटी को खाता और इस प्याले को पीता है, वह इस प्रकार खा-पी कर अपने ऊपर दण्ड को बुलाता है। 30 इसलिए तो तुममें से बहुत से लोग दुर्बल हैं, बीमार हैं और बहुत से तो चिरनिद्रा में सो गये हैं। 31 किन्तु यदि हमने अपने आप को अच्छी तरह से परख लिया होता तो हमें प्रभु का दण्ड न भोगना पड़ता। 32 प्रभु हमें अनुशासित करने के लिये दण्ड देता है। ताकि हमें संसार के साथ दंडित न किया जाये।

33 इसलिए हे मेरे भाईयों, जब भोजन करने तुम इकट्ठे होते हो तो परस्पर एक दूसरे की प्रतिक्षा करो। 34 यदि सचमुच किसी को बहुत भूख लगी हो तो उसे घर पर ही खा लेना चाहिये ताकि तुम्हारा एकत्र होना तुम्हारे लिये दण्ड का कारण न बने। अस्तु; दूसरी बातों को जब मैं आऊँगा, तभी सुलझाऊँगा।

पवित्र आत्मा के वरदान

12 हे भाईयों, अब मैं नहीं चाहता कि तुम आत्मा के वरदानों के विषय में अनजान रहो। तुम जानते हो कि जब तुम विधर्मी थे तब तुम्हें गूँगी जड़ मूर्तियों की ओर जैसे भटकाया जाता था, तुम वैसे ही भटकते थे। सो मैं तुम्हें बताता हूँ कि परमेश्वर के आत्मा की ओर से बोलने वाला कोई भी यह नहीं कहता, “यीशु को शाप लगे” और पवित्र आत्मा के द्वारा कहने वाले को छोड़ कर न कोई यह कह सकता है, “यीशु प्रभु है।”

हर एक को आत्मा के अलग-अलग वरदान मिले हैं। किन्तु उन्हें देने वाली आत्मा तो एक ही है। सेवाएँ अनेक प्रकार की निश्चित की गयी हैं किन्तु हम सब जिसकी सेवा करते हैं, वह प्रभु तो एक ही है। काम-काज तो बहुत से बताये गये हैं किन्तु सभी के बीच सब कर्मों को करने वाला वह परमेश्वर तो एक ही है।

हर किसी में आत्मा किसी न किसी रूप में प्रकट होता है जो हर एक की भलाई के लिये होता है। किसी को आत्मा के द्वारा परमेश्वर के ज्ञान से युक्त होकर बोलने की योग्यता दी गयी है तो किसी को उसी आत्मा द्वारा दिव्य ज्ञान के प्रवचन की योग्यता। और किसी को उसी आत्मा द्वारा विश्वास का वरदान दिया गया है तो किसी को चंगा करने की क्षमताएँ उसी आत्मा के द्वारा दी गयी हैं। 10 और किसी अन्य व्यक्ति को आश्चर्यपूर्ण शक्तियाँ दी गयी हैं तो किसी दूसरे को परमेश्वर की और से बोलने का सामर्थ्य दिया गया है। और किसी को मिली है भली बुरी आत्माओं के अंतर को पहचानने की शक्ति। किसी को अलग-अलग भाषाएँ बोलने की शक्ति प्राप्त हुई है, तो किसी को भाषाओं की व्याख्या करके उनका अर्थ निकालने की शक्ति। 11 किन्तु यह वही एक आत्मा है जो जिस-जिस को जैसा-जैसा ठीक समझता है, देते हुए, इन सब बातों को पूरा करता है।

मसीह की देह

12 जैसे हममें से हर एक का शरीर तो एक है, पर उसमें अंग अनेक हैं। और यद्यपि अंगों के अनेक रहते हुए भी उनसे देह एक ही बनती है, वैसे ही मसीह है। 13 क्योंकि चाहे हम यहूदी रहे हों, चाहे ग़ैर यहूदी, सेवक रहे हों या स्वतन्त्र। एक ही देह के विभिन्न अंग बन जाने के लिए हम सब को एक ही आत्मा द्वारा बपतिस्मा दिया गया और प्यास बुझाने को हम सब को एक ही आत्मा प्रदान की गयी।

14 अब देखो, मानव शरीर किसी एक अंग से ही तो बना नहीं होता, बल्कि उसमें बहुत से अंग होते हैं। 15 यदि पैर कहे, “क्योंकि मैं हाथ नहीं हूँ, इसलिए मेरा शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं” तो इसीलिए क्या वह शरीर का अंग नहीं रहेगा। 16 इसी प्रकार यदि कान कहे, “क्योंकि मैं आँख नहीं हूँ, इसलिए मैं शरीर का नहीं हूँ” तो क्या इसी कारण से वह शरीर का नहीं रहेगा। 17 यदि एक आँख ही सारा शरीर होता तो सुना कहाँ से जाता? यदि कान ही सारा शरीर होता तो सूँघा कहाँ से जाता? 18 किन्तु वास्तव में परमेश्वर ने जैसा ठीक समझा, हर अंग को शरीर में वैसा ही स्थान दिया। 19 सो यदि शरीर के सारे अंग एक से हो जाते तो शरीर ही कहाँ होता। 20 किन्तु स्थिति यह है कि अंग तो अनेक होते हैं किन्तु शरीर एक ही रहता है।

21 आँख हाथ से यह नहीं कह सकती, “मुझे तेरी आवश्यकता नहीं।” या ऐसे ही सिर, पैरों से नहीं कह सकता, “मुझे तुम्हारी आवश्यकता नहीं।” 22 इसके बिल्कुल विपरीत शरीर के जिन अंगो को हम दुर्बल समझते हैं, वे बहुत आवश्यक होते हैं। 23 और शरीर के जिन अंगो को हम कम आदरणीय समझते हैं, उनका हम अधिक ध्यान रखते हैं। और हमारे गुप्त अंग और अधिक शालीनता पा लेते हैं। 24 जबकि हमारे प्रदर्शनीय अंगों को इस प्रकार के उपचार की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु परमेश्वर ने हमारे शरीर की रचना इस ढंग से की है जिससे उन अंगों को जो कम सुन्दर हैं और अधिक आदर प्राप्त हो। 25 ताकि देह में कहीं कोई फूट न पड़े बल्कि देह के अंग परस्पर एक दूसरे का समान रूप से ध्यान रखें। 26 यदि शरीर का कोई एक अंग दुख पाता है तो उसके साथ शरीर के और सभी अंग दुखी होते हैं। यदि किसी एक अंग का मान बढ़ता है तो सभी अंग हिस्सा बाटते हैं।

27 इस प्रकार तुम सभी लोग मसीह का शरीर हो और अलग-अलग रूप में उसके अंग हो। 28 इतना ही नहीं परमेश्वर ने कलीसिया में पहले प्रेरितों को, दूसरे नबियों को, तीसरे उपदेशकों को, फिर आश्चर्यकर्म करने वालों को, फिर चंगा करने की शक्ति से युक्त व्यक्तियों को, फिर उनको जो दूसरों की सहायता करते हैं, प्रस्थापित किया है, फिर अगुवाई करने वालों को और फिर उन लोगों को जो विभिन्न भाषाएँ बोल सकते हैं। 29 क्या ये सभी प्रेरित हैं? ये सभी क्या नबी हैं? क्या ये सभी उपदेशक हैं? क्या ये सभी आश्चर्यकार्य करते हैं? 30 क्या इन सब के पास चंगा करने की शक्ति है? क्या ये सभी दूसरी भाषाएँ बोलते हैं? क्या ये सभी अन्यभाषाओं की व्याख्या करते हैं? 31 हाँ, किन्तु तुम आत्मा के और बड़े वरदान पाने कि लिए यत्न करते रहो। और इन सब के लिए उत्तम मार्ग तुम्हें अब मैं दिखाऊँगा।

प्रेम महान है

13 यदि मैं मनुष्यों और स्वर्गदूतों की भाषाएँ तो बोल सकूँ किन्तु मुझमें प्रेम न हो, तो मैं एक बजता हुआ घड़ियाल या झंकारती हुई झाँझ मात्र हूँ। यदि मुझमें परमेश्वर की ओर से बोलने की शक्ति हो और मैं परमेश्वर के सभी रहस्यों को जानता होऊँ तथा समूचा दिव्य ज्ञान भी मेरे पास हो और इतना विश्वास भी मुझमें हो कि पहाड़ों को अपने स्थान से सरका सकूँ, किन्तु मुझमें प्रेम न हो तो मैं कुछ नहीं हूँ। यदि मैं अपनी सारी सम्पत्ति थोड़ी-थोड़ी कर के ज़रूरत मन्दों के लिए दान कर दूँ और अब चाहे अपने शरीर तक को जला डालने के लिए सौंप दूँ किन्तु यदि मैं प्रेम नहीं करता तो। इससे मेरा भला होने वाला नहीं है।

प्रेम धैर्यपूर्ण है, प्रेम दयामय है, प्रेम में ईर्ष्या नहीं होती, प्रेम अपनी प्रशंसा आप नहीं करता। वह अभिमानी नहीं होता। वह अनुचित व्यवहार कभी नहीं करता, वह स्वार्थी नहीं है, प्रेम कभी झुँझलाता नहीं, वह बुराइयों का कोई लेखा-जोखा नहीं रखता। बुराई पर कभी उसे प्रसन्नता नहीं होती। वह तो दूसरों के साथ सत्य पर आनंदित होता है। वह सदा रक्षा करता है, वह सदा विश्वास करता है। प्रेम सदा आशा से पूर्ण रहता है। वह सहनशील है।

प्रेम अमर है। जबकि भविष्यवाणी का सामर्थ्य तो समाप्त हो जायेगा, दूसरी भाषाओं को बोलने की क्षमता युक्त जीभें एक दिन चुप हो जायेंगी, दिव्य ज्ञान का उपहार जाता रहेगा, क्योंकि हमारा ज्ञान तो अधूरा है, हमारी भविष्यवाणियाँ अपूर्ण हैं। 10 किन्तु जब पूर्णता आयेगी तो वह अधूरापन चला जायेगा।

11 जब मैं बच्चा था तो एक बच्चे की तरह ही बोला करता था, वैसे ही सोचता था और उसी प्रकार सोच विचार करता था, किन्तु अब जब मैं बड़ा होकर पुरूष बन गया हूँ, तो वे बचपने की बातें जाती रही हैं। 12 क्योंकि अभी तो दर्पण में हमें एक धुँधला सा प्रतिबिंब दिखायी पड़ रहा है किन्तु पूर्णता प्राप्त हो जाने पर हम पूरी तरह आमने-सामने देखेंगे। अभी तो मेरा ज्ञान आंशिक है किन्तु समय आने पर वह परिपूर्ण होगा। वैसे ही जैसे परमेश्वर मुझे पूरी तरह जानता है। 13 इस दौरान विश्वास, आशा और प्रेम तो बने ही रहेंगे और इन तीनों में भी सबसे महान् है प्रेम।

आध्यात्मिक वरदानों को कलीसिया की सेवा में लगाओ

14 प्रेम के मार्ग पर प्रयत्नशील रहो। और आध्यत्मिक वरदानों की निष्ठा के साथ अभिलाषा करो। विशेष रूप से परमेश्वर की ओर से बोलने की। क्योंकि जिसे दूसरे की भाषा में बोलने का वरदान मिला है, वह तो वास्तव में लोगों से नहीं बल्कि परमेश्वर से बातें कर रहा है। क्योंकि उसे कोई समझ नहीं पाता, वह तो आत्मा की शक्ति से रहस्यमय वाणी बोल रहा है। किन्तु वह जिसे परमेश्वर की ओर से बोलने का वरदान प्राप्त है, वह लोगों से उन्हें आत्मा में दृढ़ता, प्रोत्साहन और चैन पहुँचाने के लिए बोल रहा है। जिसे विभिन्न भाषाओं में बोलने का वरदान प्राप्त है वह तो बस अपनी आत्मा को ही सुदृढ़ करता है किन्तु जिसे परमेश्वर की ओर से बोलने का सामर्थ्य मिला है वह समूची कलीसिया को आध्यात्मिक रूप से सुदृढ़ बनाता है। अब मैं चाहता हूँ कि तुम सभी दूसरी अनेक भाषाएँ बोलो किन्तु इससे भी अधिक मैं यह चाहता हूँ कि तुम परमेश्वर की ओर से बोल सको क्योंकि कलीसिया की आध्यत्मिक सुदृढ़ता के लिये अपने कहे की व्याख्या करने वाले को छोड़ कर, दूसरी भाषाएँ बोलने वाले से परमेश्वर की ओर से बोलने वाला बड़ा है।

हे भाईयों, यदि दूसरी भाषाओं में बोलते हुए मैं तुम्हारे पास आऊँ तो इससे तुम्हारा क्या भला होगा, जब तक कि तुम्हारे लिये मैं कोई रहस्य उद्घाटन, दिव्यज्ञान, परमेश्वर का सन्देश या कोई उपदेश न दूँ। यह बोलना तो ऐसे ही होगा जैसे किसी बाँसुरी या सारंगी जैसे निर्जीव वाद्य की ध्वनि। यदि किसी वाद्य के स्वरों में परस्पर स्पष्ट अन्तर नहीं होता तो कोई कैसे पता लगा पायेगा कि बाँसुरी या सारंगी पर कौन सी धुन बजायी जा रही है। और यदि बिगुल से अस्पष्ट ध्वनि निकलने लगे तो फिर युद्ध के लिये तैयार कौन होगा?

इसी प्रकार किसी दूसरे की भाषा में जब तक कि तुम साफ-साफ न बोलो, तब तक कोई कैसे समझ पायेगा कि तुमने क्या कहा है। क्योंकि ऐसे में तुम तो बस हवा में बोलने वाले ही रह जाओगे। 10 इसमें कोई सन्देह नहीं हैं कि संसार में भाँति-भाँति की बोलियाँ है और उनमें से कोई भी निरर्थक नहीं है। 11 सो जब तक मैं उस भाषा का जानकार नहीं हूँ, तब तक बोलने वाले के लिये मैं एक अजनबी ही रहूँगा। और वह बोलने वाला मेरे लिये भी अजनबी ही ठहरेगा। 12 तुम पर भी यही बात लागू होती है क्योंकि तुम आध्यत्मिक वरदानों को पाने के लिये उत्सुक हो। इसलिए उनमें भरपूर होने का प्रयत्न करो, जिससे कलीसिया को आध्यात्मिक सुदृढ़ता प्राप्त हो।

13 परिणामस्वरूप जो दूसरी भाषा में बोलता है, उसे प्रार्थना करनी चाहिये कि वह अपने कहे का अर्थ भी बता सके। 14 क्योंकि यदि मैं किसी अन्य भाषा में प्रार्थना करूँ तो मेरी आत्मा तो प्रार्थना कर रही होती है किन्तु मेरी बुद्धि व्यर्थ रहती है। 15 तो फिर क्या करना चाहिये? मैं अपनी आत्मा से तो प्रार्थना करूँगा ही किन्तु साथ ही अपनी बुद्धि से भी प्रार्थना करूँगा। अपनी आत्मा से तो उसकी स्तुति करूँगा ही किन्तु अपनी बुद्धि से भी उसकी स्तुति करूँगा। 16 क्योंकि यदि तू केवल अपनी आत्मा से ही कोई आशीर्वाद दे तो वहाँ बैठा कोई व्यक्ति जो बस सुन रहा है, तेरे धन्यवाद पर “आमीन” कैसे कहेगा क्योंकि तू जो कह रहा है, उसे वह जानता ही नहीं। 17 अब देख तू तो चाहे भली-भाँति धन्यवाद दे रहा है किन्तु दूसरे व्यक्ति की तो उससे कोई आध्यात्मिक सुदृढ़ता नहीं होती।

18 मैं परमेश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि मैं तुम सब से बढ़कर विभिन्न भाषाएँ बोल सकता हूँ। 19 किन्तु कलीसिया सभा के बीच किसी दूसरी भाषा में दसियों हज़ार शब्द बोलने की अपेक्षा अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए बस पाँच शब्द बोलना अच्छा समझता हूँ ताकि दूसरों को भी शिक्षा दे सकूँ।

20 हे भाईयों, अपने विचारों में बचकाने मत रहो बल्कि बुराइयों के विषय में अबोध बच्चे जैसे बने रहो। किन्तु अपने चिन्तन में सयाने बनो। 21 जैसा कि शास्त्र कहता है:

“उनका उपयोग करते हुए
    जो अन्य बोली बोलते हैं,
उनके मुखों का उपयोग करते हुए जो पराए हैं।
मैं इनसे बात करूँगा,
    पर तब भी ये मेरी न सुनेंगे।”(O)

प्रभु ऐसा ही कहता है।

22 सो दूसरी भाषाएँ बोलने का वरदान अविश्वासियों के लिए संकेत है न कि विश्वासियों के लिये। जबकि परमेश्वर की ओर से बोलना अविश्वासियों के लिये नहीं, बल्कि विश्वासियों के लिये है। 23 सो यदि समूचा कलीसिया एकत्र हो और हर कोई दूसरी-दूसरी भाषाओं में बोल रहा हो तभी बाहर के लोग या अविश्वासी भीतर आ जायें तो क्या वे तुम्हें पागल नहीं कहेंगे। 24 किन्तु यदि हर कोई परमेश्वर की ओर से बोल रहा हो और तब तक कुछ अविश्वासी या बाहर के आ जाएँ तो क्या सब लोग उसे उसके पापों का बोध नहीं करा देंगे। सब लोग जो कह रहे हैं, उसी पर उसका न्याय होगा। 25 जब उसके मन के भीतर छिपे भेद खुल जायेंगे तब तक वह यह कहते हुए “सचमुच तुम्हारे बीच परमेश्वर है” दण्डवत प्रणाम करके परमेश्वर की उपासना करेगा।

तुम्हारी सभाएँ और कलीसिया

26 हे भाईयों, तो फिर क्या करना चाहिये? तुम जब इकट्ठे होते हो तो तुममें से कोई भजन, कोई उपदेश और कोई आध्यात्मिक रहस्य का उद्घाटन करता है। कोई किसी अन्य भाषा में बोलता है तो कोई उसकी व्याख्या करता है। ये सब बाते कलीसिया की आत्मिक सुदृढ़ता के लिये की जानी चाहिये। 27 यदि किसी अन्य भाषा में बोलना है तो अधिक से अधिक दो या तीन को ही बोलना चाहिये-बारी-बारी, एक-एक करके। और जो कुछ कहा गया है, एक को उसकी व्याख्या करनी चाहिये। 28 यदि वहाँ व्याख्या करने वाला कोई न हो तो बोलने वाले को चाहिये कि वह सभा में चुप ही रहे और फिर उसे अपने आप से और परमेश्वर से ही बातें करनी चाहिये।

29 परमेश्वर की ओर से उसके दूत के रूप में बोलने का जिन्हें वरदान मिला है, ऐसे दो या तीन व्यक्तियों को ही बोलना चाहिये और दूसरों को चाहिये कि जो कुछ उन्होंने कहा है, वे उसे परखते रहें। 30 यदि वहाँ किसी बैठे हुए पर किसी बात का रहस्य उद्घाटन होता है तो परमेश्वर की ओर से बोल रहे पहले वक्ता को चुप हो जाना चाहिये। 31 क्योंकि तुम एक-एक करके परमेश्वर की ओर से बोल सकते हो ताकि सभी लोग सीखेंऔरप्रोत्साहित हों। 32 नबियों की आत्माएँ नबियों के वश में रहती हैं। 33 क्योंकि परमेश्वर अव्यवस्था नहीं, शांति देता है। जैसा कि सन्तों की सभी कलीसियों में होता है।

34 स्त्रियों को चाहिये कि वे सभाओं में चुप रहें क्योंकि उन्हें बोलने की अनुमति नहीं है। बल्कि जैसा कि व्यवस्था के विधान में भी कहा गया है, उन्हे दब कर रहना चाहिये। 35 यदि वे कुछ जानना चाहती हैं तो उन्हें घर पर अपने-अपने पति से पूछना चाहिये क्योंकि एक स्त्री के लिये यह शोभा नहीं देता कि वह सभा में बोले।

36 क्या परमेश्वर का वचन तुमसे उत्पन्न हुआ? या वह मात्र तुम तक पहुँचा? निश्चित ही नहीं। 37 यदि कोई सोचता है कि वह नबी है अथवा उसे आध्यात्मिक वरदान प्राप्त है तो उसे पहचान लेना चाहिये कि मैं तुम्हें जो कुछ लिख रहा हूँ, वह प्रभु का आदेश है। 38 सो यदि कोई इसे नहीं पहचान पाता तो उसे भी नहीं पहचाना जायेगा।

39 इसलिए हे मेरे भाईयों, परमेश्वर की ओर से बोलने को तत्पर रहो तथा दूसरी भाषाओं में बोलने वालों को भी मत रोको। 40 किन्तु ये सभी बातें सही ढ़ंग से और व्यवस्थानुसार की जानी चाहियें।

Hindi Bible: Easy-to-Read Version (ERV-HI)

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