Revised Common Lectionary (Semicontinuous)
स्त्री ने फिर कहा
8 मैं अपने प्रियतम की आवाज़ सुनती हूँ।
यह पहाड़ों से उछलती हुई
और पहाड़ियों से कूदती हुई आती है।
9 मेरा प्रियतम सुन्दर कुरंग
अथवा हरिण जैसा है।
देखो वह हमारी दीवार के उस पार खड़ा है,
वह झंझरी से देखते हुए
खिड़कियों को ताक रहा है।
10 मेरा प्रियतम बोला और उसने मुझसे कहा,
“उठो, मेरी प्रिये, हे मेरी सुन्दरी,
आओ कहीं दूर चलें!
11 देखो, शीत ऋतु बीत गई है,
वर्षा समाप्त हो गई और चली गई है।
12 धरती पर फूल खिलें हुए हैं।
चिड़ियों के गाने का समय आ गया है!
धरती पर कपोत की ध्वनि गुंजित है।
13 अंजीर के पेड़ों पर अंजीर पकने लगे हैं।
अंगूर की बेलें फूल रही हैं, और उनकी भीनी गन्ध फैल रही है।
मेरे प्रिय उठ, हे मेरे सुन्दर,
आओ कहीं दूर चलें!”
संगीत निर्देशक के लिए शोकन्नीभ की संगत पर कोरह परिवार का एक कलात्मक प्रेम प्रगीत।
1 सुन्दर शब्द मेरे मन में भर जाते हैं,
जब मैं राजा के लिये बातें लिखता हूँ।
मेरे जीभ पर शष्द ऐसे आने लगते हैं
जैसे वे किसी कुशल लेखक की लेखनी से निकल रहे हैं।
2 तू किसी भी और से सुन्दर है!
तू अति उत्तम वक्ता है।
सो तुझे परमेश्वर आशीष देगा!
6 हे परमेश्वर, तेरा सिंहासन अमर है!
तेरा धर्म राजदण्ड है।
7 तू नेकी से प्यार और बैर से द्वेष करता है।
सो परमेश्वर तेरे परमेश्वर ने तेरे साथियों के ऊपर
तुझे राजा चुना है।
8 तेरे वस्त्र महक रहे है जैसे गंध रास, अगर और तेज पात से मधुर गंध आ रही।
हाथी दाँत जड़ित राज महलों से तुझे आनन्दित करने को मधुर संगीत की झँकारे बिखरती हैं।
9 तेरी माहिलायें राजाओं की कन्याएँ है।
तेरी महारानी ओपीर के सोने से बने मुकुट पहने तेरे दाहिनी ओर विराजती हैं।
17 प्रत्येक उत्तम दान और परिपूर्ण उपहार ऊपर से ही मिलते हैं। और वे उस परम पिता के द्वारा जिसने स्वर्गीय प्रकाश को जन्म दिया है, नीचे लाए जाते हैं। वह नक्षत्रों की गतिविधि से उप्तन्न छाया से कभी बदलता नहीं है। 18 सत्य के सुसंदेश के द्वारा अपनी संतान बनाने के लिए उसने हमें चुना। ताकि हम सभी प्राणियों के बीच उसकी फ़सल के पहले फल सिद्ध हों।
सुनना और उस पर चलना
19 हे मेरे प्रिय भाईयों, याद रखो, हर किसी को तत्परता के साथ सुनना चाहिए, बोलने में शीघ्रता मत करो, क्रोध करने में उतावली मत बरतो। 20 क्योंकि मनुष्य के क्रोध से परमेश्वर की धार्मिकता नहीं उपजती। 21 हर घिनौने आचरण और चारो ओर फैली दुष्टता से दूर रहो। तथा नम्रता के साथ तुम्हारे हृदयों में रोपे गए परमेश्वर के वचन को ग्रहण करो जो तुम्हारी आत्माओं को उद्धार दिला सकता है।
22 परमेश्वर की शिक्षा पर चलने वाले बनो, न कि केवल उसे सुनने वाले। यदि तुम केवल उसे सुनते भर हो तो तुम अपने आपको छल रहे हो। 23 क्योंकि यदि कोई परमेश्वर की शिक्षा को सुनता तो है और उस पर चलता नहीं है, तो वह उस पुरुष के समान ही है जो अपने भौतिक मुख को दर्पण में देखता भर है। 24 वह स्वयं को अच्छी तरह देखता है, पर जब वहाँ से चला जाता है तो तुरंत भूल जाता है कि वह कैसा दिख रहा था। 25 किन्तु जो परमेश्वर की उस सम्पूर्ण व्यवस्था को निकटता से देखता है, जिससे स्वतन्त्रता प्राप्त होती है और उसी पर आचरण भी करता रहता है, और सुन कर उसे भूले बिना अपने आचरण में उतारता रहता है, वही अपने कर्मों के लिए धन्य होगा।
भक्ति का सच्चा मार्ग
26 यदि कोई सोचता है कि वह भक्त है और अपनी जीभ पर कस कर लगाम नहीं लगाता तो वह धोखे में है। उसकी भक्ति निरर्थक है। 27 परम पिता परमेश्वर के सामने सच्ची और शुद्ध भक्ति वही है जिसमें अनाथों और विधवाओं की उनके दुःख दर्द में सुधि ली जाए और स्वयं को कोई सांसारिक कलंक न लगने दिया जाए।
मनुष्य के नियमों से परमेश्वर का विधान महान है
(मत्ती 15:1-20)
7 तब फ़रीसी और कुछ धर्मशास्त्री जो यरूशलेम से आये थे, यीशु के आसपास एकत्र हुए। 2 उन्होंने देखा कि उसके कुछ शिष्य बिना हाथ धोये भोजन कर रहे हैं। 3 क्योंकि अपने पुरखों की रीति पर चलते हुए फ़रीसी और दूसरे यहूदी जब तक सावधानी के साथ पूरी तरह अपने हाथ नहीं धो लेते भोजन नहीं करते। 4 ऐसे ही बाज़ार से लाये खाने को वे बिना धोये नहीं खाते। ऐसी ही और भी अनेक रुढ़ियाँ हैं, जिनका वे पालन करते हैं। जैसे कटोरों, कलसों, ताँबे के बर्तनों को माँजना, धोना आदि।[a]
5 इसलिये फरीसियों और धर्मशास्त्रियों ने यीशु से पूछा, “तुम्हारे शिष्य पुरखों की परम्परा का पालन क्यों नहीं करते? बल्कि अपना खाना बिना हाथ धोये ही खा लेते हैं।”
6 यीशु ने उनसे कहा, “यशायाह ने तुम जैसे कपटियों के बारे में ठीक ही भविष्यवाणी की थी। जैसा कि लिखा है:
‘ये मेरा आदर केवल होठों से करते है,
पर इनके मन मुझसे सदा दूर हैं।
7 मेरे लिए उनकी उपासना व्यर्थ है,
क्योंकि उनकी शिक्षा केवल लोगों द्वारा बनाए हुए सिद्धान्त हैं।’(A)
8 तुमने परमेश्वर का आदेश उठाकर एक तरफ रख दिया है और तुम मनुष्यों की परम्परा का सहारा ले रहे हो।”
14 यीशु ने भीड़ को फिर अपने पास बुलाया और कहा, “हर कोई मेरी बात सुने और समझे। 15 ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो बाहर से मनुष्य के भीतर जा कर उसे अशुद्ध करे, बल्कि जो वस्तुएँ मनुष्य के भीतर से निकलतीं हैं, वे ही उसे अशुद्ध कर सकती हैं।”
21 क्योंकि मनुष्य के हृदय के भीतर से ही बुरे विचार और अनैतिक कार्य, चोरी, हत्या, 22 व्यभिचार, लालच, दुष्टता, छल-कपट, अभद्रता, ईर्ष्या, चुगलखोरी, अहंकार और मूर्खता बाहर आते हैं। 23 ये सब बुरी बातें भीतर से आती हैं और व्यक्ति को अशुद्ध बना देती हैं।”
© 1995, 2010 Bible League International