Revised Common Lectionary (Complementary)
आलेफ
1 जो लोग पवित्र जीवन जीते हैं, वे प्रसन्न रहते हैं।
ऐसे लोग यहोवा की शिक्षाओं पर चलते हैं।
2 लोग जो यहोवा की विधान पर चलते हैं, वे प्रसन्न रहते हैं।
अपने समग्र मन से वे यहोवा की मानते हैं।
3 वे लोग बुरे काम नहीं करते।
वे यहोवा की आज्ञा मानते हैं।
4 हे यहोवा, तूने हमें अपने आदेश दिये,
और तूने कहा कि हम उन आदेशों का पूरी तरह पालन करें।
5 हे यहोवा, यादि मैं सदा
तेरे नियमों पर चलूँ,
6 जब मैं तेरे आदेशों को विचारूँगा
तो मुझे कभी भी लज्जित नहीं होना होगा।
7 जब मैं तेरे खरेपन और तेरी नेकी को विचारता हूँ
तब सचमुच तुझको मान दे सकता हूँ।
8 हे यहोवा, मैं तेरे आदेशों का पालन करूँगा।
सो कृपा करके मुझको मत बिसरा!
9 तब यहोवा ने मूसा से कहा, 10 “इस्राएल के लोगों से ये बातें कहोः यह हो सगता है कि तुम ठीक समय पर फसह पर्व न मना सको क्योंकि तुम या तुम्हारे परिवार का कोई व्यक्ति शव को स्पर्श करने के कारण अशुद्ध हो या संभव है कि तुम किसी यात्रा पर गए हुए हो। 11 तो भी तुम फसह पर्व मना सकते हो। तुम फसह पर्व को दूसरे महीने के चौदहवें दिन संध्या के समय मनाओगे। उस समय तुम मेमना, अखमीरी रोटी और कड़वा सागपात खाओगे। 12 अगली सुबह तक के लिए तुम्हें उसमें से कोई भी भोजन नहीं छोड़ना चाहिए। तुम्हें मेमने की किसी हड्डी को भी नहीं तोड़ना चाहिए। उस व्यक्ति को फसह पर्व के सभी नियमों का पालन करना चाहिए। 13 किन्तु कोई भी व्यक्ति जो समर्थ है, फसह पर्व की दावत को ठीक समय पर ही खाये। यदि वह शुद्ध है और किसी यात्रा पर नहीं गया है तो उसके लिए कोई बहाना नहीं है। यदि वह व्यक्ति फसह पर्व को ठीक समय पर नहीं खाता है तो उसे अपने लोगों से अलग भेज दिया जायेगा। वह अपराधी है! क्योंकि उसने यहोवा को ठीक समय पर अपनी भेंट नहीं चढ़ाई सो उसे दण्ड अवश्य दिया जाना चाहिए।
14 “तुम लोगों के साथ रहने वाला कोई भी व्यक्ति जो इस्राएलि लोगों का सदस्य नहीं है, यहोवा के फसह पर्व में तुम्हारे साथ भाग लेना चाह सकता है। यह स्वीकृत है, किन्तु उस व्यक्ति को उन नियमों का पालन करना होगा। जो तुम्हें दिए गए हैं। तुम्हें अन्य लोगों के लिए भी वे ही नियम रखने होंगे जो तुम्हारे लिए हैं।”
अच्छे सामरी की कथा
25 तब एक न्यायशास्त्री खड़ा हुआ और यीशु की परीक्षा लेने के लिये उससे पूछा, “गुरु, अनन्त जीवन पाने के लिये मैं क्या करूँ?”
26 इस पर यीशु ने उससे कहा, “व्यवस्था के विधि में क्या लिखा है, वहाँ तू क्या पढ़ता है?”
27 उसने उत्तर दिया, “‘तू अपने सम्पूर्ण मन, सम्पूर्ण आत्मा, सम्पूर्ण शक्ति और सम्पूर्ण बुद्धि से अपने प्रभु से प्रेम कर।’(A) और ‘अपने पड़ोसी से वैसे ही प्यार कर, जैसे तू अपने आप से करता है।’(B)”
28 तब यीशु ने उस से कहा, “तू ने ठीक उत्तर दिया है। तो तू ऐसा ही कर इसी से तू जीवित रहेगा।”
29 किन्तु उसने अपने को न्याय संगत ठहराने की इच्छा करते हुए यीशु से कहा, “और मेरा पड़ोसी कौन है?”
30 यीशु ने उत्तर में कहा, “देखो, एक व्यक्ति यरूशलेम से यरीहो जा रहा था कि वह डाकुओं से घिर गया। उन्होंने सब कुछ छीन कर उसे नंगा कर दिया और मार पीट कर उसे अधमरा छोड़ कर वे चले गये।
31 “अब संयोग से उसी मार्ग से एक याजक जा रहा था। जब उसने इसे देखा तो वह मुँह मोड़कर दूसरी ओर चला गया। 32 उसी रास्ते होता हुआ एक लेवी[a] भी वहीं आया। उसने उसे देखा और वह भी मुँह मोड़कर दूसरी ओर चला गया।
33 “किन्तु एक सामरी भी जाते हुए वहीं आया जहाँ वह पड़ा था। जब उसने उस व्यक्ति को देखा तो उसके लिये उसके मन में करुणा उपजी, 34 सो वह उसके पास आया और उसके घावों पर तेल और दाखरस डाल कर पट्टी बाँध दी। फिर वह उसे अपने पशु पर लाद कर एक सराय में ले गया और उसकी देखभाल करने लगा। 35 अगले दिन उसने दो दीनारी निकाली और उन्हें सराय वाले को देते हुए बोला, ‘इसका ध्यान रखना और इससे अधिक जो कुछ तेरा खर्चा होगा, जब मैं लौटूँगा, तुझे चुका दूँगा।’”
36 यीशु ने उससे कहा, “बता तेरे विचार से डाकुओं के बीच घिरे व्यक्ति का पड़ोसी इन तीनों में से कौन हुआ?”
37 न्यायशास्त्री ने कहा, “वही जिसने उस पर दया की।”
इस पर यीशु ने उससे कहा, “जा और वैसा ही कर जैसा उसने किया!”
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