Revised Common Lectionary (Complementary)
हेथ्
33 हे यहोवा, तू मुझे अपनी व्यवस्था सिखा
तब मैं उनका अनुसरण करूँगा।
34 मुझको सहारा दे कि मैं उनको समझूँ
और मैं तेरी शिक्षाओं का पालन करुँगा।
मैं पूरी तरह उनका पालन करूँगा।
35 हे यहोवा, तू मुझको अपने आदेशों की राह पर ले चल।
मुझे सचमुच तेरे आदेशों से प्रेम है। मेरा भला कर और मुझे जीने दे।
36 मेरी सहायता कर कि मैं तेरे वाचा का मनन करूँ,
बजाय उसके कि यह सोचता रहूँ कि कैसे धनवान बनूँ।
37 हे यहोवा, मुझे अद्भुत वस्तुओं पाने को
कठिन जतन मत करने दे।
38 हे यहोवा, मैं तेरा दास हूँ। सो उन बातों को कर जिनका वचन तूने दिये है।
तूने उन लोगों को जो पूर्वज हैं उन बातों को वचन दिया था।
39 हे यहोवा, जिस लाज से मुझको भय उसको तू दूर कर दे।
तेरे विवेकपूर्ण निर्णय अच्छे होते हैं।
40 देख मुझको तेरे आदेशोंसे प्रेम है।
मेरा भला कर और मुझे जीने दे।
21 “याद रखो इससे पहले तुम लोग मिस्र देश में विदेशी थे। अतः तुम लोग उस व्यक्ति को न ठगो, न ही चोट पहुँचाओ जो तुम्हारे देश में विदेशी हो।
22 “निश्चय ही तुम लोग ऐसी स्त्रियों का कभी बुरा नहीं करोगे जिनके पति मर चुके हों या उन बच्चों का जिनके माता—पिता न हों। 23 यदि तुम लोग उन विधवाओं या अनाथ बच्चों का कुछ बुरा करोगे तो वे मेरे आगे रोएंगे और मैं उनके कष्टों को सुनूँगा 24 और मुझे बहुत क्रोध आएगा। मैं तुम्हें तलवार से मार डालूँगा। तब तुम्हारी पत्नियाँ विधवा हो जाएंगी और तुम्हारे बच्चे अनाथ हो जाएंगे।
25 “यदि मेरे लोगों में से कोई गरीब हो और तुम उसे कर्ज़ दो तो उस धन के लिए तुम्हें ब्याज़ नहीं लेना चाहिए। और जल्दी चुकाने के लिए भी तुम उसे मजबूर नहीं करोगे। 26 कोई व्यक्ति उधार लिए हुए धन के भुगतान के लिए अपना लबादा गिरवी रख सकता है। किन्तु तुम सूरज डूबने के पहले उसका वह वस्त्र अवश्य लौटा देना। 27 यदि वह व्यक्ति अपना लबादा नहीं पाता तो उसके पास शरीर ढकने को कुछ भी नहीं रहेगा। जब वह सोएगा तो उसे सर्दी लगेगी। यदि वह मुझे रोकर पुकारेगा तो मैं उसकी सुनूँगा। मैं उसकी बात सुनूँगा क्योंकि मैं कृपालु हूँ।
अपनी स्वतन्त्रता का प्रयोग परमेश्वर की महिमा के लिये करो
23 जैसा कि कहा गया है कि, “हम कुछ भी करने के लिये स्वतन्त्र हैं।” पर सब कुछ हितकारी तो नहीं है। “हम कुछ भी करने के लिए स्वतन्त्र हैं” किन्तु हर किसी बात से विश्वास सुदृढ़ तो नहीं होता। 24 किसी को भी मात्र स्वार्थ की ही चिन्ता नहीं करनी चाहिये बल्कि औरों के परमार्थ की भी सोचनी चाहिये।
25 बाजार में जो कुछ बिकता है, अपने अन्तर्मन के अनुसार वह सब कुछ खाओ। उसके बारे में कोई प्रश्न मत करो। 26 क्योंकि शास्त्र कहता है: “यह धरती और इस पर जो कुछ है, सब प्रभु का है।”(A)
27 यदि अविश्वासियों में से कोई व्यक्ति तुम्हें भोजन पर बुलाये और तुम वहाँ जाना चाहो तो तुम्हारे सामने जो भी परोसा गया है, अपने अन्तर्मन के अनुसार सब खाओ। कोई प्रश्न मत पूछो। 28 किन्तु यदि कोई तुम लोगों को यह बताये, “यह देवता पर चढ़ाया गया चढ़ावा है” तो जिसने तुम्हें यह बताया है, उसके कारण और अपने अन्तर्मन के कारण उसे मत खाओ।
29 मैं जब अन्तर्मन कहता हूँ तो मेरा अर्थ तुम्हारे अन्तर्मन से नहीं बल्कि उस दूसरे व्यक्ति के अन्तर्मन से है। एकमात्र यही कारण है। क्योंकि मेरी स्वतन्त्रता भला दूसरे व्यक्ति के अन्तर्मन द्वारा लिये गये निर्णय से सीमित क्यों रहे? 30 यदि मैं धन्यवाद देकर, भोजन में हिस्सा लेता हूँ तो जिस वस्तु के लिये मैं परमेश्वर को धन्यवाद देता हूँ, उसके लिये मेरी आलोचना नहीं की जानी चाहिये।
31 इसलिए चाहे तुम खाओ, चाहे पिओ, चाहे कुछ और करो, बस सब कुछ परमेश्वर की महिमा के लिये करो। 32 यहूदियों के लिये या ग़ैर यहूदियों के लिये या जो परमेश्वर के कलीसिया के हैं, उनके लिये कभी बाधा मत बनो 33 जैसे स्वयं हर प्रकार से हर किसी को प्रसन्न रखने का जतन करता हूँ, और बिना यह सोचे कि मेरा स्वार्थ क्या है, परमार्थ की सोचता हूँ ताकि उनका उद्धार हो।
11 सो तुम लोग वैसे ही मेरा अनुसरण करो जैसे मैं मसीह का अनुसरण करता हूँ।
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