Historical
26 इसलिए राजा अग्रिप्पा ने पौलॉस को सम्बोधित करते हुए कहा, “तुम्हें अपना पक्ष प्रस्तुत करने की आज्ञा है. इसलिए पौलॉस ने एक बोलनेवाले की मुद्रा में हाथ उठाते हुए अपने बचाव में कहना शुरु किया.”
2 “महाराज अग्रिप्पा, आज मैं स्वयं को धन्य मान रहा हूँ, जो मैं यहाँ यहूदियों द्वारा लगाए गए आरोपों के विरुद्ध उत्तर देनेवाले के रूप में आपके सामने खड़ा हुआ हूँ. 3 विशेष रूप से इसलिए भी कि आप यहूदी प्रथाओं तथा समस्याओं को भली-भांति जानते हैं. इसलिए मैं आप से विनती करता हूँ कि आप मेरा पक्ष धीरज से सुनें.”
4 “मेरे देश तथा येरूशालेम में सभी यहूदी मेरी युवावस्था से लेकर अब तक की जीवनशैली से अच्छी तरह से परिचित हैं. 5 इसलिए कि लंबे समय से वे मुझसे परिचित हैं, वे चाहें तो, इस सच्चाई की गवाही भी दे सकते हैं कि मैंने फ़रीसी सम्प्रदाय के अनुरूप, जो कट्टरतम मत है, जीवन जिया है. 6 आज मैं परमेश्वर द्वारा हमारे पूर्वजों को दी गई प्रतिज्ञा की आशा के कारण यहाँ दोषी के रूप में खड़ा हूँ. 7 यह वही प्रतिज्ञा है, जिसके पूरे होने की आशा हमारे बारह कुल दिन-रात सच्चाई में परमेश्वर की सेवा-उपासना करते हुए कर रहे हैं. महाराज, आज मुझ पर यहूदियों द्वारा मुकद्दमा इसी आशा के कारण चलाया जा रहा है. 8 किसी के लिए भला यह अविश्वसनीय क्यों है कि परमेश्वर मरे हुओं को जीवित करते हैं?”
9 “मेरी अपनी मान्यता भी यही थी कि नाज़रेथवासी येशु के नाम के विरोध में मुझे बहुत कुछ करना ज़रूरी है. 10 येरूशालेम में मैंने ठीक यही किया भी. प्रधान याजकों से अधिकार पत्र लेकर मैं अनेक शिष्यों को कारागार में डाल देता था, जब उनकी हत्या की जाती थी तो उसमें मेरी भी सम्मति होती थी. 11 अक्सर सभी यहूदी आराधनालयों में जाकर मैं उन्हें दण्डित करते हुए मसीह येशु की निन्दा के लिए बाध्य करने का प्रयास भी करता था और क्रोध में पागल होकर मैं उनका पीछा करते हुए सीमा पार के नगरों में भी उन्हें सताया करता था.”
12 “इसी उद्धेश्य से एक बार मैं प्रधान याजकों से अधिकारपत्र प्राप्त कर दमिश्क नगर जा रहा था. 13 महाराज! दोपहर के समय मैंने और मेरे सहयात्रियों ने आकाश से सूर्य से भी कहीं अधिक तेज़ ज्योति देखी. 14 जब हम सब भूमि पर गिर पड़े, मुझे इब्री भाषा में सम्बोधित करता हुआ एक शब्द सुनाई दिया, ‘शाऊल! शाऊल! तुम मुझे क्यों सता रहे हो? पैने पर लात मारना तुम्हारे लिए ही हानिकर है.’”
15 “मैंने प्रश्न किया, ‘आप कौन हैं, प्रभु?’
“प्रभु ने उत्तर दिया ‘मैं येशु हूँ तुम जिसे सता रहे हो,’ 16 ‘किन्तु उठो, खड़े हो जाओ क्योंकि तुम्हें दर्शन देने का मेरा उद्धेश्य यह है कि न केवल, जो कुछ तुमने देखा है परन्तु वह सब, जो मैं तुम्हें अपने विषय में दिखाऊँगा, उसके लिए तुम्हें सेवक और गवाह ठहराऊँ. 17 यहूदियों तथा अन्यजातियों से, जिनके बीच मैं तुम्हें भेज रहा हूँ, मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा 18 कि उनकी आँखें खोलूँ तथा उन्हें अन्धकार से निकाल कर ज्योति में और शैतान के अधिकार से परमेश्वर के राज्य में ले आऊँ कि वे पाप-क्षमा प्राप्त कर सकें और उनके सामने आ जाएँ, जो मुझ में विश्वास के द्वारा परमेश्वर के लिए अलग किए गए हैं.’”
19 “इसलिए महाराज अग्रिप्पा, मैंने स्वर्गीय दर्शन की बात नहीं टाली. 20 मैंने सबसे पहिले दमिश्क नगर में, इसके बाद येरूशालेम तथा सारे यहूदिया प्रदेश तथा अन्यजातियों में भी यह प्रचार किया कि वे पश्चाताप करके परमेश्वर की ओर लौट आएँ तथा अपने स्वभाव के द्वारा अपने पश्चाताप को प्रमाणित करें.
21 “यही वह कारण है कि कुछ यहूदियों ने मन्दिर में मुझे पकड़कर मेरी हत्या करनी चाही. 22 अब तक मुझे परमेश्वर की सहायता प्राप्त होती रही, जिसके परिणामस्वरूप मैं आप और छोटे-बड़े सभी के सामने उसी सच्चाई के पूरा होने की घोषणा कर रहा हूँ जिसका वर्णन मोशेह और भविष्यद्वक्ताओं ने किया था 23 कि मसीह दुःख भोगेंगे और मरे हुओं में से जी उठने में सबसे पहिले होने के कारण वह यहूदियों और अन्यजातियों दोनों ही में ज्योति की घोषणा करेंगे.”
सुननेवालों की प्रतिक्रिया
24 जब पौलॉस अपने बचाव में यह कह ही रहे थे, फ़ेस्तुस ने ऊँचे शब्द में कहा, “पौलॉस! तुम्हारी तो मति भ्रष्ट हो गई है. तुम्हारी बहुत शिक्षा तुम्हें पागल बना रही है.” 25 किन्तु पौलॉस ने उत्तर दिया, “अत्यन्त सम्मान्य फ़ेस्तुस महोदय, मेरी मति भ्रष्ट नहीं हुई है! मेरा कथन सच और ज्ञान के है. 26 महाराज तो इन विषयों से परिचित हैं. मैं बड़े आत्मविश्वास के साथ उनसे यह सब कह रहा हूँ. मुझे पूरा निश्चय है कि इन विषयों में से कुछ भी उनके लिए नया नहीं है क्योंकि इनमें से कुछ भी गुप्त में नहीं किया गया.
27 “महाराज अग्रिप्पा, क्या आप भविष्यद्वक्ताओं का विश्वास करते हैं? मैं जानता हूँ कि आप विश्वास करते हैं.” 28 अग्रिप्पा ने पौलॉस से कहा, “तुम सोच रहे हो कि तुम शीघ्र ही मुझे मसीही होने के लिए सहमत कर लोगे!” 29 पौलॉस ने उत्तर दिया, “शीघ्र ही या विलम्ब से, परमेश्वर से मेरी तो यही विनती है कि न केवल आप, परन्तु ये सभी सुननेवाले, जो आज मेरी बातें सुन रहे हैं, मेरे ही समान हो जाएँ—सिवाय इन बेड़ियों के.”
30 तब राजा, राज्यपाल, बेरनिके और वे सभी, जो उनके साथ वहाँ बैठे हुए थे, खड़े हो गए तथा 31 न्यायालय से बाहर निकल कर आपस में विचार-विमर्श करने लगे: “इस व्यक्ति ने मृत्युदण्ड या कारावास के योग्य कोई अपराध नहीं किया है!” 32 राजा अग्रिप्पा ने राज्यपाल फ़ेस्तुस से कहा, “यदि इस व्यक्ति ने कयसर से दोहाई का प्रस्ताव न किया होता तो इसे छोड़ दिया गया होता!”
रोम नगर के लिए रवाना
27 जब यह तय हो गया कि हमें जलमार्ग से इतालिया जाना है तो उन्होंने पौलॉस तथा कुछ अन्य बन्दियों को राजकीय सैन्यदल के यूलियुस नामक सेनापति को सौंप दिया. 2 हम सब आद्रामुत्तेयुम नगर के एक जलयान पर सवार हुए, जो आसिया प्रदेश के समुद्र के किनारे के नगरों से होते हुए जाने के लिए तैयार था. जलमार्ग द्वारा हमारी यात्रा शुरु हुई. आरिस्तारख़ॉस भी हमारा साथी यात्री था, जो मकेदोनिया प्रदेश के थेस्सलोनिकेयुस नगर का वासी था. 3 अगले दिन हम त्सीदोन नगर पहुँच गए. भले दिल से यूलियुस ने पौलॉस को नगर में जाकर अपने प्रियजनों से मिलने और उनसे आवश्यक वस्तुएं ले आने की आज्ञा दे दी. 4 वहाँ से हमने यात्रा दोबारा शुरु की और उल्टी हवा बहने के कारण हमें कुप्रास द्वीप की ओट से आगे बढ़ना पड़ा. 5 जब हम समुद्र में यात्रा करते हुए किलिकिया और पम्फ़ूलिया नगरों के तट से होते हुए लुकिया के मूरा नगर पहुँचे 6 वहाँ सेनापति को यह मालूम हुआ कि अलेक्सान्द्रिया का एक जलयान इतालिया देश जाने के लिए तैयार खड़ा है. इसलिए उसने हमें उसी पर सवार करवा दिया. 7 हमें धीमी गति से यात्रा करते अनेक दिन हो गए थे. हमारा क्नीदॉस नगर पहुंचना कठिन हो गया क्योंकि उल्टी हवा चल रही थी. इसलिए हम सालेम के एक नगर क्रेते के पास से होते हुए आगे बढ़ गए. 8 बड़ी कठिनाई में उसके पास से होते हुए हम एक स्थान पर पहुँचे जिसका नाम था कालॉस लिमेनस अर्थात् मनोरम पत्तन. लासिया नगर इसी के पास स्थित है.
बवण्डर तथा यानध्वंस
9 बहुत अधिक समय खराब हो चुका था. हमारी जलयात्रा खतरे से भर गई थी क्योंकि सर्दी के मौसम में तय किया हुआ प्रायश्चित बलि दिवस बीत चुका था. इसलिए पौलॉस ने उन्हें चेतावनी देते हुए कहा, 10 “मुझे साफ़ दिखाई दे रहा है कि हमारी यह यात्रा हानिकारक है. इसके कारण जलयान व सामान की ही नहीं परन्तु स्वयं हमारे जीवनों की घोर हानि होने पर है.” 11 किन्तु सेनापति ने पौलॉस की चेतावनी की अनसुनी कर जलयान चालक तथा जलयान स्वामी का सुझाव स्वीकार कर लिया, 12 ठण्ड़ के दिनों में यह बंदरगाह इस योग्य नहीं रह जाता था कि इसमें ठहरा जाए. इसलिए बहुमत था कि आगे बढ़ा जाए. उन्होंने इस आशा में यात्रा शुरु कर दी कि किसी प्रकार ठण्ड़ शुरु होने के पहिले फ़ॉयनिके नगर तो पहुँच ही जाएँगे. यह क्रेते द्वीप का बंदरगाह था, जिसका द्वार दक्षिण-पश्चिम और उत्तर-पश्चिम दिशा में है.
13 जब सामान्य दक्षिणी वायु बहने लगी, उन्हें ऐसा लगा कि उन्हें अपने लक्ष्य की प्राप्ति हो गई है. इसलिए उन्होंने लंगर उठा लिया और क्रेते द्वीप के किनारे समुद्र से होते हुए आगे बढ़े. 14 वे अभी अधिक दूर न जा पाए थे कि यूराकिलो नामक भयंकर चक्रवाती हवा बहने लगी और 15 जलयान इसकी चपेट में आ गया. वह इस तेज़ हवा के थपेड़ों का सामना करने में असमर्थ था. इसलिए हमने यान को इसी हवा के बहाव में छोड़ दिया और हवा के साथ बहने लगे. 16 कौदा नामक एक छोटे द्वीप की ओर हवा के बहाव में बहते हुए हम बड़ी कठिनाई से जीवनरक्षक नाव को जलयान से बान्ध पाए. 17 उन्होंने जलयान को पेंदे से लेकर ऊपर तक रस्सों द्वारा अच्छी रीति से कस दिया और इस आशंका से कि कहीं उनका जलयान उथले समुद्र की रेत में फँस न जाए, उन्होंने लंगर को थोड़ा नीचे उतार कर जलयान को हवा के बहाव के साथ-साथ बहने के लिए छोड़ दिया.
18 अगले दिन तेज़ लहरों और भयंकर आँधी के थपेड़ों के कारण उन्होंने यान में लदा हुआ सामान फेंकना शुरु कर दिया. 19 तीसरे दिन वे अपने ही हाथों से जलयान के भारी उपकरणों को फेंकने लगे. 20 अनेक दिन तक न तो सूर्य ही दिखाई दिया और न ही तारे. हवा का बहाव तेज़ बना हुआ था इसलिए हमारे जीवित बचे रहने की सारी आशा धीरे-धीरे खत्म होती चली गई.
21 एक लम्बे समय तक भूखे रहने के बाद पौलॉस ने उनके मध्य खड़े हो कर यह कहा, “मित्रो, उत्तम तो यह होता कि आप लोग मेरा विचार स्वीकार करते और क्रेते द्वीप से आगे ही न बढ़ते जिससे इस हानि से बचा जा सकता. 22 अब आप से मेरी विनती है कि आप साहस न छोड़ें क्योंकि जलयान के अलावा किसी के भी जीवन की हानि नहीं होगी; 23 क्योंकि वह, जो मेरे परमेश्वर हैं और मैं जिनका सेवक हूँ, उनका एक स्वर्गदूत रात में मेरे पास आ खड़ा हुआ 24 और उसने मुझे धीरज दिया, ‘मत डर, पौलॉस, तुम्हें कयसर के सामने उपस्थित होना ही है. परमेश्वर ने अपनी करूणा में तुम्हें और तुम्हारे साथ यात्रा करनेवालों को जीवनदान दिया है.’
25 “इसलिए साथियो, साहस न छोड़ो क्योंकि मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ. ठीक वैसा ही होगा जैसा मुझे बताया गया है. 26 हम अवश्य ही किसी द्वीप के थल पर पहुँच जाएँगे.”
27 चौदहवें दिन रात के समय, जब हम आद्रिया सागर में लहरों के थपेड़ों के बीच आगे बढ़ रहे थे, आधी रात को नाविकों को यह अहसास हुआ कि वे थल के पास पहुँच रहे हैं. 28 जब उन्होंने गहराई नापी तो पाया कि गहराई सैंतीस मीटर थी. कुछ और आगे बढ़ने पर गहराई सत्ताइस मीटर निकली. 29 इस आशंका से कि कहीं वे चट्टानों से टकरा न जाएँ उन्होंने जलयान की पिछली ओर से चार लंगर डाल दिए और उत्सुकता से सुबह होने की कामना करने लगे. 30 जलयान से पीछा छुड़ा कर भागने के कार्य में नाविकों ने जीवनरक्षक नाव को जल में इस प्रकार उतारा मानो वे सामने की ओर के लंगर नीचे कर रहे हों. 31 पौलॉस ने सेनापति और सैनिकों को चेतावनी देते हुए कहा, “यदि ये लोग जलयान पर न रहे तो आप भी जीवित न रह सकेंगे.” 32 इसलिए सैनिकों ने उन रस्सियों को काट दिया जिससे वह नाव लटकी हुई थी.
33 पौलॉस ने उन सबसे कुछ खा लेने की विनती की, “चौदह दिन से आप अनिश्चितता की स्थिति का सामना करते आ रहे हैं और आप लोगों ने कुछ खाया भी नहीं है. 34 इसलिए आप से मेरी विनती यह है कि आप कुछ तो अवश्य खा लें. जिससे की आपका बचाव हो. आपके सिर का एक बाल भी नाश न होगा.” 35 यह कहते हुए उन्होंने रोटी ली और सभी के सामने उसके लिए परमेश्वर के प्रति धन्यवाद प्रकट किया, उसे तोड़ा और खाने लगे. 36 वे सभी उत्साहित हो गए और सभी ने भोजन किया. 37 जलयान में हम सब कुल दो सौ छिहत्तर व्यक्ति थे. 38 भरपेट भोजन कर उन्होंने जलयान में लदा हुआ गेहूं समुद्र में फेंकना आरम्भ कर दिया कि जलयान का बोझ कम हो जाए. 39 दिन निकलने पर वे उस स्थान को पहचान तो न सके किन्तु तभी उन्हें खाड़ी-जैसा समुद्र का किनारा दिखाई दिया. उन्होंने निश्चय कर लिया कि यदि सम्भव हो तो जलयान को वहीं लगा दें. 40 उन्होंने लंगर समुद्र में काट गिराए, पाल के रस्से ढीले कर दिए और समुद्र के किनारे की ओर बढ़ने के लक्ष्य से सामने के पाल खोल दिए 41 किन्तु जलयान रेत में फँस गया. उसका अगला भाग तो स्थिर हो गया किन्तु पिछला भाग लहरों के थपेड़ों से टूटता चला गया.
42 सैनिकों ने सभी कैदियों को मार डालने की योजना की कि उनमें से कोई भी तैर कर भाग न जाए 43 किन्तु सेनापति पौलॉस को सुरक्षित ले जाना चाहता था; इसलिए उसने सैनिकों का इरादा पूरा न होने दिया और यह आज्ञा दी कि वे, जो तैर सकते हैं, कूद कर तैरते हुए जलयान से पहले भूमि पर पहुँच जाएँ 44 और बाकी यात्री जलयान के टूटे अंशों तथा पटरों के सहारे किसी प्रकार भूमि पर पहुँच जाएँ. इस प्रकार सभी यात्री भूमि पर सुरक्षित पहुँच गए.
मैलिते द्वीप में प्रतीक्षा
28 जब सभी यात्री वहाँ सुरक्षित आ गए. तब हमें मालूम हुआ कि इस द्वीप का नाम मैलिते था. 2 वहाँ के निवासीयों ने हमारे प्रति अनोखी दया दिखाई. लगातार वर्षा के कारण तापमान में गिरावट आ गई थी. ठण्ड़ के कारण उन्होंने आग जलाकर हमारा स्वागत किया. 3 जब पौलॉस ने लकड़ियों का एक गट्ठा आग पर रखा ही था कि ताप के कारण एक विषैला साँप उसमें से निकल कर उनकी बाँह पर लिपट गया. 4 वहाँ के निवासियों ने इस जन्तु को उनकी बाँह से लटका देखा तो आपस में कहने लगे, “सचमुच यह व्यक्ति हत्यारा है. समुद्री बाढ़ से तो यह बच निकला है किन्तु न्याय-देवी नहीं चाहती कि यह जीवित रहे.” 5 किन्तु पौलॉस ने उस जन्तु को आग में झटक दिया और उनका कोई बुरा नहीं हुआ. 6 वे सभी यह इंतज़ार करते रहे कि उनकी बाँह सूज जाएगी या वह किसी भी क्षण मर कर गिर पड़ेंगे. वे देर तक इसी की प्रतीक्षा करते रहे किन्तु उनके साथ कुछ भी असमान्य नहीं हुआ. इसलिए लोगों का नज़रिया ही बदल गया और वे कहने लगे कि पौलॉस एक देवता हैं.
7 उस स्थान के पास ही एक भूमिखण्ड था, जो उस द्वीप के प्रधान शासक पुब्लियुस की सम्पत्ति था. उसने हमें अपने घर में आमन्त्रित किया और तीन दिन तक हमारी विशेष आवभगत की. 8 उसका पिता बीमार था. वह ज्वर और आँव से पीड़ित पड़ा था. पौलॉस उसे देखने गए. उसके लिए प्रार्थना करने तथा उस पर हाथ रखने के द्वारा उन्होंने उस व्यक्ति को स्वस्थ कर दिया.
9 परिणामस्वरूप उस द्वीप के अन्य रोगी भी पौलॉस के पास आने लगे और स्वस्थ होते चले गए. 10 उन्होंने अनेक प्रकार से हमारा सम्मान किया. जब हमने वहाँ से जल-यात्रा शुरु की, उन्होंने वे सारी वस्तुएं, जो हमारे लिए ज़रूरी थीं, जलयान पर रख दीं.
मैलिते द्वीप से रोम नगर की ओर
11 तीन महिने बाद हमने अलेक्सान्द्रिया जा रहे जलयान पर यात्रा शुरु की. यह जलयान ठण्ड़ के कारण इस द्वीप में ठहरा हुआ था. इस यान के अगले भाग पर एक जोड़ी देवताओं की एक आकृति—दिओस्कूरोईस गढ़ी हुई थी.
12 सायराक्यूज़ नगर पहुँचने पर हम वहाँ तीन दिन रहे. 13 वहाँ से आगे बढ़कर हम रेगियम नगर पहुँचे. एक दिन बाद जब हमें दक्षिणी वायु मिली हम फिर आगे बढ़े और दूसरे दिन पुतेओली नगर जा पहुँचे. 14 वहाँ कुछ शिष्य थे, जिन्होंने हमें अपने घर में ठहरने के लिए आमंत्रित किया. हम वहाँ सात दिन ठहरे. आखिरकार हम रोम नगर पहुँच गए. 15 हमारे विषय में समाचार मिलने पर शिष्य हमसे भेंट करने अप्पियुस के चौक तथा त्रिओन ताबेरनॉन नामक स्थान तक आए. उन्हें देख पौलॉस ने बहुत आनन्दित हो परमेश्वर के प्रति धन्यवाद प्रकट किया. 16 रोम पहुँचने पर पौलॉस को अकेले रहने की आज्ञा मिल गई किन्तु उन पर पहरे के लिए एक सैनिक को ठहरा दिया गया था.
रोम नगर के यहूदियों से पौलॉस की भेंट
17 तीन दिन बाद उन्होंने यहूदी प्रधानों की एक सभा बुलाई. उनके इकट्ठा होने पर पौलॉस ने उन्हें सम्बोधित करते हुए कहा, “मेरे प्रिय भाइयो, यद्यपि मैंने स्वजातीय यहूदियों तथा हमारे पूर्वजों की प्रथाओं के विरुद्ध कुछ भी नहीं किया है फिर भी मुझे येरूशालेम में बन्दी बना कर रोमी सरकार के हाथों में सौंप दिया गया है. 18 मेरी जांच करने के बाद वे मुझे रिहा करने के लिए तैयार थे क्योंकि उन्होंने मुझे प्राणदण्ड का दोषी नहीं पाया. 19 किन्तु जब यहूदियों ने इसका विरोध किया तो मुझे मजबूर होकर कयसर के सामने दोहाई देनी पड़ी—इसलिए नहीं कि मुझे अपने राष्ट्र के विरुद्ध कोई आरोप लगाना था. 20 मैंने आप लोगों से मिलने की आज्ञा इसलिए ली है कि मैं आप से विचार-विमर्श कर सकूँ क्योंकि यह बेड़ी मैंने इस्राएल की आशा की भलाई में धारण की है.”
21 उन्होंने पौलॉस को उत्तर दिया, “हमें यहूदिया प्रदेश से आपके सम्बन्ध में न तो कोई पत्र प्राप्त हुआ है और न ही किसी ने यहाँ आ कर आपके विषय में कोई प्रतिकूल सूचना दी है. 22 हमें इस मत के विषय में आप से ही आपके विचार सुनने की इच्छा थी. हमें मालूम है कि हर जगह इस मत का विरोध हो रहा है.”
रोम नगर के यहूदियों के सामने पौलॉस का भाषण
23 तब इसके लिए एक दिन तय किया गया और निर्धारित समय पर बड़ी संख्या में लोग उनके घर पर आए. सुबह से लेकर शाम तक पौलॉस सच्चाई से परमेश्वर के राज्य के विषय में शिक्षा देते रहे तथा मसीह येशु के विषय में मोशेह की व्यवस्था और भविष्यद्वक्ताओं के लेखों से स्पष्ट करके उन्हें दिलासा दिलाते रहे. 24 उनकी बातों को सुनकर उनमें से कुछ तो मान गए किन्तु कुछ अन्यों ने इसका विश्वास नहीं किया. 25 जब वे एक दूसरे से सहमत न हो सके तो वे पौलॉस की इस अन्तिम बात को सुन कर जाने लगे: “भविष्यद्वक्ता यशायाह ने पवित्रात्मा के द्वारा आप लोगों के पूर्वजों पर एक ठीक सच्चाई ही प्रकाशित की थी:
26 “‘इन लोगों से जाकर कहो,
“तुम लोग सुनते तो रहोगे, किन्तु समझोगे नहीं.
तुम लोग देखते भी रहोगे, किन्तु पहचान न सकोगे.”
27 क्योंकि इन लोगों का हृदय जड़ हो चुका है.
अपने कानों से वे कदाचित ही कुछ सुन पाते हैं
और आँखें तो उन्होंने मूंद ही रखी हैं,
कि कहीं वे आँखों से देख न लें
और कानों से सुन न लें
और अपने हृदय से समझ कर लौट आएँ और मैं, परमेश्वर,
उन्हें स्वस्थ और पूर्ण बना दूँ.’
28 “इसलिए यह सही है कि आपको यह मालूम हो जाए कि परमेश्वर का यह उद्धार अब अन्यजातियों के लिए भी मौजूद है. वे भी इसे स्वीकार करेंगे.” 29 उनकी इन बातों के बाद यहूदी वहाँ से आपस में झगड़ते हुए चले गए.
30 पौलॉस वहाँ अपने भाड़े के मकान में पूरे दो साल रहे. वह भेंट करने आए व्यक्तियों को पूरे दिल से स्वीकार करते थे.
31 वह निडरता से, बिना रोक-टोक के, पूरे साफ़-साफ़ शब्दों में परमेश्वर के राज्य का प्रचार करते और प्रभु मसीह येशु के विषय में शिक्षा देते रहे.
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