The Daily Audio Bible
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31 “मैंने अपनी आँखो के साथ एक सन्धि की है कि
वे किसी लड़की पर वासनापूर्ण दृष्टि न डालें।
2 सर्वशक्तिमान परमेश्वर लोगों के साथ कैसा करता है
वह कैसे अपने ऊँचे स्वर्ग के घर से उनके कर्मो का प्रतिफल देता है
3 दुष्ट लोगों के लिये परमेश्वर संकट और विनाश भेजता है,
और जो बुरा करते हैं, उनके लिये विध्वंस भेजता है।
4 मैं जो कुछ भी करता हूँ परमेश्वर जानता है
और मेरे हर कदम को वह देखता है।
5 “यदि मैंने झूठा जीवन जिया हो
या झूठ बोल कर लोगों को मूर्ख बनाया हो,
6 तो वह मुझको खरी तराजू से तौले,
तब परमेश्वर जान लेगा कि मैं निरपराध हूँ।
7 यदि मैं खरे मार्ग से हटा होऊँ
यदि मेरी आँखे मेरे मन को बुरे की
ओर ले गई अथवा मेरे हाथ पाप से गंदे हैं।
8 तो मेरी उपजाई फसल अन्य लोग खा जाये
और वे मेरी फसलों को उखाड़ कर ले जायें।
9 “यदि मैं स्त्रियों के लिये कामुक रहा होऊँ,
अथवा यदि मैं अपने पड़ोसी के द्वार को उसकी पत्नी के साथ व्यभिचार करने के लिये ताकता रहा होऊँ,
10 तो मेरी पत्नी दूसरों का भोजन तैयार करे
और उसके साथ पराये लोग सोंये।
11 क्यों? क्योंकि यौन पाप लज्जापूर्ण होता है?
यह ऐसा पाप है जो निश्चय ही दण्डित होना चाहिये।
12 व्यभिचार उस पाप के समान है, जो जलाती और नष्ट कर डालती है।
मेरे पास जो कुछ भी है व्यभिचार का पाप उसको जला डालेगा।
13 “यदि मैं अपने दास—दासियों के सामने उस समय निष्पक्ष नहीं रहा,
जब उनको मुझसे कोई शिकायत रहीं।
14 तो जब मुझे परमेश्वर के सामने जाना होगा,
तो मैं क्या करूँगा? जब वह मुझ को मेरे कर्मो की सफाई माँगने बुलायेगा तो मैं परमेश्वर को क्या उत्तर दूँगा?
15 परमेश्वर ने मुझको मेरी माता के गर्भ में बनाया, और मेरे दासों को भी उसने माता के गर्भ में हीं बनाया,
उसने हम दोनों ही को अपनी—अपनी माता के भीतर ही रूप दिया है।
16 “मैंने कभी भी दीन जन की सहायता को मना नहीं किया।
मैंने विधवाओं को सहारे बिना नहीं रहने दिया।
17 मैं स्वार्थी नहीं रहा।
मैंने अपने भोजन के साथ अनाथ बच्चों को भूखा नहीं रहने दिया।
18 ऐसे बच्चों के लिये जिनके पिता नहीं है, मैं पिता के जैसा रहा हूँ।
मैंने जीवन भर विधवाओं का ध्यान रखा है।
19 जब मैंने किसी को इसलिये कष्ट भोगते पाया कि उसके पास वस्त्र नहीं हैं,
अथवा मैंने किसी दीन को बिना कोट के पाया।
20 तो मैं सदा उन लोगों को वस्त्र देता रहा,
मैंने उन्हें गर्म रखने को मैंने स्वयं अपनी भेड़ों के ऊन का उपयोग किया,
तो वे मुझे अपने समूचे मन से आशीष दिया करते थे।
21 यदि कोई मैंने अनाथ को छलने का जतन अदालत में किया हो
यह जानकर की मैं जीतूँ,
22 तो मेरा हाथ मेरे कंधे के जोड़ से ऊतर जाये
और मेरा हाथ कंधे पर से गिर जाये।
23 किन्तु मैंने तो कोई वैसा बुरा काम नहीं किया।
क्यों? क्योंकि मैं परमेश्वर के दण्ड से डरता रहा था।
24 “मैंने कभी अपने धन का भरोसा न किया,
और मैंने कभी नहीं शुद्ध सोने से कहा कि “तू मेरी आशा है!”
25 मैंने कभी अपनी धनिकता का गर्व नहीं किया
अथवा जो मैंने सम्पत्ति कमाई थी, उसके प्रति मैं आनन्दित हुआ।
26 मैंने कभी चमकते सूरज की पूजा नहीं की
अथवा मैंने सुन्दर चाँद की पूजा नहीं की।
27 मैंने कभी इतनी मूर्खता नहीं की
कि सूरज और चाँद को पूजूँ।
28 यदि मैंने इनमें से कुछ किया तो वो मेरा पाप हो और मुझे उसका दण्ड मिले।
क्योंकि मैं उन बातों को करते हुये सर्वशक्तिशाली परमेश्वर का अविश्वासी हो जाता।
29 “जब मेरे शत्रु नष्ट हुए तो
मैं प्रसन्न नहीं हुआ,
जब मेरे शत्रुओं पर विपत्ति पड़ी तो,
मैं उन पर नहीं हँसा।
30 मैंने अपने मुख को अपने शत्रु से बुरे शब्द बोल कर पाप नहीं करने दिया
और नहीं चाहा कि उन्हें मृत्यु आ जाये।
31 मेरे घर के सभी लोग जानते हैं कि
मैंने सदा अनजानों को खाना दिया।
32 मैंने सदा अनजानों को अपने घर में बुलाया,
ताकि उनको रात में गलियों में सोना न पड़े।
33 दूसरे लोग अपने पाप को छुपाने का जतन करते हैं,
किन्तु मैंने अपना दोष कभी नहीं छुपाया।
34 क्यों क्योंकि लोग कहा करते हैं कि मैं उससे कभी नहीं डरा।
मैं कभी चुप न रहा और मैंने कभी बाहर जाने से मना नहीं किया
क्योंकि उन लोगों से जो मेरे प्रति बैर रखते हैं कभी नहीं डरा।
35 “ओह! काश कोई होता जो मेरी सुनता!
मुझे अपनी बात समझाने दो।
काश! शक्तिशाली परमेश्वर मुझे उत्तर देता।
काश! वह उन बातों को लिखता जो मैंने गलत किया था उसकी दृष्टि में।
36 क्योंकि निश्चय ही मैं वह लिखावट अपने निज कन्धों पर रख लूँगा
और मैं उसे मुकुट की तरह सिर पर रख लूँगा।
37 मैंने जो कुछ भी किया है, मैं उसे परमेश्वर को समझाऊँगा।
मैं परमेश्वर के पास अपना सिर ऊँचा उठाये हुये जाऊँगा, जैसे मैं कोई मुखिया होऊँ।
38 “यदि जिस खेत पर मैं खेती करता हूँ उसको मैंने चुराया हो
और उसको उसके स्वामी से लिया हो जिससे वह धरती अपने ही आँसुओं से गीली हो।
39 और यदि मैंने कभी बिना मजदूरों को मजदूरी दिये हुये,
खेत की उपज को खाया हो और मजदूरों को हताश किया हो,
40 हाँ! यदि इनमें से कोई भी बुरा काम मैंने किया हो,
तो गेहूँ के स्थान पर काँटे और जौ के बजाये खर—पतवार खेतों में उग आयें।”
अय्यूब के शब्द समाप्त हुये!
एलीहू का कथन
32 फिर अय्यूब के तीनों मित्रों ने अय्यूब को उत्तर देने का प्रयत्न करना छोड़ दिया। क्योंकि अय्यूब निश्चय के साथ यह मानता था कि वह स्वयं सचमुच दोष रहित हैं। 2 वहाँ एलीहू नाम का एक व्यक्ति भी था। एलीहू बारकेल का पुत्र था। बारकेल बुज़ नाम के एक व्यक्ति के वंशज था। एलीहू राम के परिवार से था। एलीहू को अय्यूब पर बहुत क्रोध आया क्योंकि अय्यूब कह रहा था कि वह स्वयं नेक है और वह परमेश्वर पर दोष लगा रहा था। 3 एलीहू अय्यूब के तीनों मित्रों से भी नाराज़ था क्योंकि वे तीनों ही अय्यूब के प्रश्नों का युक्ति संगत उत्तर नहीं दे पाये थे और अय्यूब को ही दोषी बता रहे थे। इससे तो फिर ऐसा लगा कि जैसे परमेश्वर ही दोषी था। 4 वहाँ जो लोग थे उनमें एलीहू सबसे छोटा था इसलिए वह तब तक बाट जोहता रहा जब तक हर कोई अपनी अपनी बात पूरी नहीं कर चुका। तब उसने सोचा कि अब वह बोलना शुरु कर सकता हैं। 5 एलीहू ने जब यह देखा कि अय्यूब के तीनों मित्रों के पास कहने को और कुछ नहीं है तो उसे बहुत क्रोध आया। 6 सो एलीहू ने अपनी बात कहना शुरु किया। वह बोला:
“मैं छोटा हूँ और तुम लोग मुझसे बड़े हो,
मैं इसलिये तुमको वह बताने में डरता था जो मैं सोचता हूँ।
7 मैंने मन में सोचा कि बड़े को पहले बोलना चाहिये,
और जो आयु में बड़े है उनको अपने ज्ञान को बाँटना चाहिये।
8 किन्तु व्यक्ति में परमेश्वर की आत्मा बुद्धि देती है
और सर्वशक्तिशाली परमेश्वर का प्राण व्यक्ति को ज्ञान देता है।
9 आयु में बड़े व्यक्ति ही नहीं ज्ञानी होते है।
क्या बस बड़ी उम्र के लोग ही यह जानते हैं कि उचित क्या है?
10 “सो इसलिये मैं एलीहू जो कुछ मैं जानता हूँ।
तुम मेरी बात सुनों मैं तुम को बताता हूँ कि मैं क्या सोचता हूँ।
11 जब तक तुम लोग बोलते रहे, मैंने धैर्य से प्रतिक्षा की,
मैंने तुम्हारे तर्क सुने जिनको तुमने व्यक्त किया था, जो तुमने चुन चुन कर अय्यूब से कहे।
12 जब तुम मार्मिक शब्दों से जतन कर रहे थे, अय्यूब को उत्तर देने का तो मैं ध्यान से सुनता रहा।
किन्तु तुम तीनों ही यह प्रमाणित नहीं कर पाये कि अय्यूब बुरा है।
तुममें से किसी ने भी अय्यूब के तर्को का उत्तर नहीं दिया।
13 तुम तीनों ही लोगों को यही नहीं कहना चाहिये था कि तुमने ज्ञान को प्राप्त कर लिया है।
लोग नहीं, परमेश्वर निश्चय ही अय्यूब के तर्को का उत्तर देगा।
14 किन्तु अय्यूब मेरे विरोध में नहीं बोल रहा था,
इसलिये मैं उन तर्को का प्रयोग नहीं करुँगा जिसका प्रयोग तुम तीनों ने किया था।
15 “अय्यूब, तेरे तीनो ही मित्र असमंजस में पड़ें हैं,
उनके पास कुछ भी और कहने को नहीं हैं,
उनके पास और अधिक उत्तर नहीं हैं।
16 ये तीनों लोग यहाँ चुप खड़े हैं
और उनके पास उत्तर नहीं है।
सो क्या अभी भी मुझको प्रतिक्षा करनी होगी?
17 नहीं! मैं भी निज उत्तर दूँगा।
मैं भी बताऊँगा तुम को कि मैं क्या सोचता हूँ।
18 क्योंकि मेरे पास सहने को बहुत है मेरे भीतर जो आत्मा है,
वह मुझको बोलने को विवश करती है।
19 मैं अपने भीतर ऐसी दाखमधु सा हूँ, जो शीघ्र ही बाहर उफन जाने को है।
मैं उस नयी दाखमधु मशक जैसा हूँ जो शीघ्र ही फटने को है।
20 सो निश्चय ही मुझे बोलना चाहिये, तभी मुझे अच्छा लगेगा।
अपना मुख मुझे खोलना चाहिये और मुझे अय्यूब की शिकायतों का उत्तर देना चाहिये।
21 इस बहस में मैं किसी भी व्यक्ति का पक्ष नहीं लूँगा
और मैं किसी का खुशामद नहीं करुँगा।
22 मैं नहीं जानता हूँ कि कैसे किसी व्यक्ति की खुशामद की जाती है।
यदि मैं किसी व्यक्ति की खुशामद करना जानता तो शीघ्र ही परमेश्वर मुझको दण्ड देता।
33 “किन्तु अय्यूब अब, मेरा सन्देश सुन।
उन बातों पर ध्यान दे जिनको मैं कहता हूँ।
2 मैं अपनी बात शीघ्र ही कहनेवाला हूँ, मैं अपनी बात कहने को लगभग तैयार हूँ।
3 मन मेरा सच्चा है सो मैं सच्चा शब्द बोलूँगा।
उन बातों के बारे में जिनको मैं जानता हूँ मैं सत्य कहूँगा।
4 परमेश्वर की आत्मा ने मुझको बनाया है,
मुझे सर्वशक्तिशाली परमेश्वर से जीवन मिलता है।
5 अय्यूब, सुन और मुझे उत्तर दे यदि तू सोचता है कि तू दे सकता है।
अपने उत्तरों को तैयार रख ताकि तू मुझसे तर्क कर सके।
6 परमेश्वर के सम्मुख हम दोनों एक जैसे हैं,
और हम दोनों को ही उसने मिट्टी से बनाया है।
7 अय्यूब, तू मुझ से मत डर।
मैं तेरे साथ कठोर नहीं होऊँगा।
8 “किन्तु अय्यूब, मैंने सुना है कि
तू यह कहा करता हैं,
9 तूने कहा था, कि मैं अय्यूब, दोषी नहीं हूँ, मैंने पाप नहीं किया,
अथवा मैं कुछ भी अनुचित नहीं करता हूँ, मैं अपराधी नहीं हूँ।
10 यद्यपि मैंने कुछ भी अनुचित नहीं किया, तो भी परमेश्वर ने कुछ खोट मुझ में पाया है।
परमेश्वर सोचता है कि मैं अय्यूब, उसका शत्रु हूँ।
11 इसलिए परमेश्वर मेरे पैरों में काठ डालता है,
मैं जो कुछ भी करता हूँ वह देखता रहता है।
12 “किन्तु अय्यूब, मैं तुझको निश्चय के साथ बताता हूँ कि तू इस विषय में अनुचित है।
क्यों? क्योंकि परमेश्वर किसी भी व्यक्ति से अधिक जानता है।
13 अय्यूब, तू क्यों शिकायत करता है और क्यों परमेश्वर से बहस करता है? तू क्यों शिकायत करता है कि
परमेश्वर तुझे हर उस बात के विषय में जो वह करता है स्पष्ट क्यों नहीं बताता है?
14 किन्तु परमेश्वर निश्चय ही हर उस बात को जिसको वह करता है स्पष्ट कर देता है।
परमेश्वर अलग अलग रीति से बोलता है किन्तु लोग उसको समझ नहीं पाते हैं।
15 सम्भव है कि परमेश्वर स्वप्न में लोगों के कान में बोलता हो,
अथवा किसी दिव्यदर्शन में रात को जब वे गहरी नींद में हों।
16 जब परमेश्वर की चेतावनियाँ सुनते है
तो बहुत डर जाते हैं।
17 परमेश्वर लोगों को बुरी बातों को करने से रोकने को सावधान करता है,
और उन्हें अहंकारी बनने से रोकने को।
18 परमेश्वर लोगों को मृत्यु के देश में जाने से बचाने के लिये सावधान करता है।
परमेश्वर मनुष्य को नाश से बचाने के लिये ऐसा करता है।
19 “अथवा कोई व्यक्ति परमेश्वर की वाणी तब सुन सकता है जब वह बिस्तर में पड़ा हों और परमेश्वर के दण्ड से दु:ख भोगता हो।
परमेश्वर पीड़ा से उस व्यक्ति को सावधान करता है।
वह व्यक्ति इतनी गहन पीड़ा में होता है, कि उसकी हड्डियाँ दु:खती है।
20 फिर ऐसा व्यक्ति कुछ खा नहीं पाता, उस व्यक्ति को पीड़ा होती है
इतनी अधिक की उसको सर्वोत्तम भोजन भी नहीं भाता।
21 उसके शरीर का क्षय तब तक होता जाता है जब तक वह कंकाल मात्र नहीं हो जाता,
और उसकी सब हड्डियाँ दिखने नहीं लग जातीं!
22 ऐसा व्यक्ति मृत्यु के देश के निकट होता है, और उसका जीवन मृत्यु के निकट होता है।
किन्तु हो सकता है कि कोई स्वर्गदूत हो जो उसके उत्तम चरित्र की साक्षी दे।
23 परमेश्वर के पास हजारों ही स्वर्गदूत हैं।
फिर वह स्वर्गदूत उस व्यक्ति के अच्छे काम बतायेगा।
24 वह स्वर्गदूत उस व्यक्ति पर दयालु होगा, वह दूत परमेश्वर से कहेगा:
‘इस व्यक्ति की मृत्यु के देश से रक्षा हो!
इसका मूल्य चुकाने को एक राह मुझ को मिल गयी है।’
25 फिर व्यक्ति की देह जवान और सुदृढ़ हो जायेगी।
वह व्यक्ति वैसा ही हो जायेगा जैसा वह तब था, जब वह जवान था।
26 वह व्यक्ति परमेश्वर की स्तुति करेगा और परमेश्वर उसकी स्तुति का उत्तर देगा।
वह फिर परमेश्वर को वैसा ही पायेगा जैसे वह उसकी उपासना करता है, और वह अति प्रसन्न होगा।
क्योंकि परमेश्वर उसे निरपराध घोषित कर के पहले जैसा जीवन कर देगा।
27 फिर वह व्यक्ति लोगों के सामने स्वीकार करेगा। वह कहेगा: ‘मैंने पाप किये थे,
भले को बुरा मैंने किया था,
किन्तु मुझे इससे क्या मिला!
28 परमेश्वर ने मृत्यु के देश में गिरने से मेरी आत्मा को बचाया।
मैं और अधिक जीऊँगा और फिर से जीवन का रस लूँगा।’
29 “परमेश्वर व्यक्ति के साथ ऐसा बार—बार करता है,
30 उसको सावधान करने को और उसकी आत्मा को मृत्यु के देश से बचाने को।
ऐसा व्यक्ति फिर जीवन का रस लेता है।
31 “अय्यूब, ध्यान दे मुझ पर, तू बात मेरी सुन,
तू चुप रह और मुझे कहने दे।
32 अय्यूब, यदि तेरे पास कुछ कहने को है तो मुझको उसको सुनने दे।
आगे बढ़ और बता,
क्योंकि मैं तुझे निर्दोंष देखना चाहता हूँ।
33 अय्यूब, यदि तूझे कुछ नहीं कहना है तो तू मेरी बात सुन।
चुप रह, मैं तुझको बुद्धिमान बनना सिखाऊँगा।”
नयी वाचा के सेवक
3 इससे क्या ऐसा लगता है कि हम फिर से अपनी प्रशंसा अपने आप करने लगे हैं? अथवा क्या हमें तुम्हारे लिये या तुमसे परिचयपत्र लेने की आवश्यकता है? जैसा कि कुछ लोग करते हैं। निश्चय ही नहीं, 2 हमारा पत्र तो तुम स्वयं हो जो हमारे मन में लिखा है, जिसे सभी लोग जानते हैं और पढ़ते हैं 3 और तुम भी तो ऐसा ही दिखाते हो मानो तुम मसीह का पत्र हो। जो हमारी सेवा का परिणाम है। जिसे स्याही से नहीं बल्कि सजीव परमेश्वर की आत्मा से लिखा गया है। जिसे पथरीली शिलाओं[a] पर नहीं बल्कि मनुष्य के हृदय पटल पर लिखा गया है।
4 हमें मसीह के कारण परमेश्वर के सामने ऐसा दावा करने का भरोसा है। 5 ऐसा नहीं है कि हम अपने आप में इतने समर्थ हैं जो सोचने लगे हैं कि हम अपने आप से कुछ कर सकते हैं बल्कि हमें सामर्थ्य तो परमेश्वर से मिलता है। 6 उसी ने हमें एक नये करार का सेवक बनने योग्य ठहराया है। यह कोई लिखित संहिता नहीं है बल्कि आत्मा की वाचा है क्योंकि लिखित संहिता तो मारती है जबकि आत्मा जीवन देती है।
नया नियम महान महिम लाता है
7 किन्तु वह सेवा जो मृत्यु से युक्त थी यानी व्यवस्था का विधान जो पत्थरों पर अंकित किया गया था उसमें इतना तेज था कि इस्राएल के लोग मूसा के उस तेजस्वी मुख को एकटक न देख सके। (और यद्यपि उसका वह तेज बाद में क्षीण हो गया।) 8 फिर भला आत्मा से युक्त सेवा और अधिक तेजस्वी क्यों नहीं होगी। 9 और फिर जब दोषी ठहराने वाली सेवा में इतना तेज है तो उस सेवा में कितना अधिक तेज होगा जो धर्मी ठहराने वाली सेवा है। 10 क्योंकि जो पहले तेज से परिपूर्ण था वह अब उस तेज के सामने जो उससे कहीं अधिक तेजस्वी है, तेज रहित हो गया है। 11 क्योंकि वह सेवा जिसका तेजहीन हो जाना निश्चित था, वह तेजस्वी थी, तो जो नित्य है, वह कितनी तेजस्वी होगी।
12 अपनी इसी आशा के कारण हम इतने निर्भय हैं। 13 हम उस मूसा के जैसे नहीं हैं जो अपने मुख पर पर्दा डाले रहता था कहीं इस्राएल के लोग (यहूदी) अपनी आँखें गड़ा कर जिसका विनाश सुनिश्चित था, उस सेवा के अंत को न देख लें। 14 किन्तु उनकी बुद्धि बन्द हो गयी थी, क्योंकि आज तक जब वे उस पुरानी वाचा को पढ़ते हैं, तो वही पर्दा उन पर बिना हटाये पड़ा रहता है। क्योंकि वह पर्दा बस मसीह के द्वारा ही हटाया जाता है। 15 आज तक जब जब मूसा का ग्रंथ पढ़ा जाता है तो पढ़ने वालों के मन पर वह पर्दा पड़ा ही रहता है। 16 किन्तु जब किसी का हृदय प्रभु की ओर मुड़ता है तो वह पर्दा हटा दिया जाता है। 17 देखो! जिस प्रभु की ओर मैं इंगित कर रहा हूँ, वही आत्मा है। और जहाँ प्रभु की आत्मा है, वहाँ छुटकारा है। 18 सो हम सभी अपने खुले मुख के साथ दर्पण में प्रभु के तेज का जब ध्यान करते हैं तो हम भी वैसे ही होने लगते हैं और हमारा तेज अधिकाधिक बढ़ने लगता है। यह तेज उस प्रभु से ही प्राप्त होता है। यानी आत्मा से।
1 हे परमेस्वर, एक मनुष्य है जो तेरी अनुसरण नहीं करता वह मनुष्य दुष्ट है और झूठ बोलता है।
हे परमेश्वर, मेरा मुकदमा लड़ और यह निर्णय कर कि कोन सत्य है।
मुझे उस मनुष्य से बच ले।
2 हे परमेस्वर, तू ही मेरा शरणस्थल है!
मुझको तूने क्यों बिसरा दिय
तूने मुझको यह क्यों नहीं दिखाया
कि मै अपने श्त्रुओं से कैसे बच निकलूँ?
3 हे परमेश्वर, तू अपनी ज्योति और अपने सत्य को मुझ पर प्रकाशित होने दे।
मुझको तेरी ज्योति और सत्य राह दिखायेंगे।
वे मुझे तेरे पवित्र पर्वत और अपने घर को ले चलेंगे।
4 मैं तो परमेस्वर की वेदी के पास जाऊँगा।
परमेश्वर मैं तेरे पास आऊँगा। वह मुझे आनन्दित करता है।
हे परमेश्वर, हे मेरे परमेश्वर,
मैं वीणा पर तेरी स्तुति करँगा।
5 मैं इतना दु:खी क्यों हुँ?
मैं क्यों इतना व्यकुल हूँ?
मुझे परमेश्वर के सहारे की बाट जोहनी चाहिए।
मुझे अब भी उसकी स्तुती का अवसर मिलेगा।
वह मुझे बचाएगा।
8 ऐसा मनुष्य जो दुष्टता के बीज बोता है वह तो संकट की फसल काटेगा; और उसकी क्रोध की लाठी नष्ट हो जायेगी।
9 उदार मन का मनुष्य स्वयं ही धन्य होगा, क्योंकि वह गरीब जन के साथ बाँट कर खाता है।
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