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The Daily Audio Bible

This reading plan is provided by Brian Hardin from Daily Audio Bible.
Duration: 731 days

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Hindi Bible: Easy-to-Read Version (ERV-HI)
Version
अय्यूब 4-7

एलीपज का कथन

फिर तेमान के एलीपज ने उत्तर दिया:

“यदि कोई व्यक्ति तुझसे कुछ कहना चाहे तो
    क्या उससे तू बेचैन होगा? मुझे कहना ही होगा!
हे अय्यूब, तूने बहुत से लोगों को शिक्षा दी
    और दुर्बल हाथों को तूने शक्ति दी।
जो लोग लड़खड़ा रहे थे तेरे शब्दों ने उन्हें ढाढ़स बंधाया था।
    तूने निर्बल पैरों को अपने प्रोत्साहन से सबल किया।
किन्तु अब तुझ पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है
    और तेरा साहस टूट गया है।
विपदा की मार तुझ पर पड़ी
    और तू व्याकुल हो उठा।
तू परमेश्वर की उपासना करता है,
    सो उस पर भरोसा रख।
तू एक भला व्यक्ति है
    सो इसी को तू अपनी आशा बना ले।
अय्यूब, इस बात को ध्यान में रख कि कोई भी सज्जन कभी नहीं नष्ट किये गये।
    निर्दोष कभी भी नष्ट नहीं किया गया है।
मैंने ऐसे लोगों को देखा है जो कष्टों को बढ़ाते हैं और जो जीवन को कठिन करते हैं।
    किन्तु वे सदा ही दण्ड भोगते हैं।
परमेश्वर का दण्ड उन लोगों को मार डालता है
    और उसका क्रोध उन्हें नष्ट करता है।
10 दुर्जन सिंह की तरह गुरर्ते और दहाड़ते हैं,
    किन्तु परमेश्वर उन दुर्जनों को चुप कराता है।
    परमेश्वर उनके दाँत तोड़ देता है।
11 बुरे लोग उन सिंहों के समान होते हैं जिन के पास शिकार के लिये कुछ भी नहीं होता।
    वे मर जाते हैं और उनके बच्चे इधर—उधर बिखर जाते है, और वे मिट जाते हैं।

12 “मेरे पास एक सन्देश चुपचाप पहुँचाया गया,
    और मेरे कानों में उसकी भनक पड़ी।
13 जिस तरह रात का बुरा स्वप्न नींद उड़ा देता हैं,
    ठीक उसी प्रकार मेरे साथ में हुआ है।
14 मैं भयभीत हुआ और काँपने लगा।
    मेरी सब हड्‌डियाँ हिल गई।
15 मेरे सामने से एक आत्मा जैसी गुजरी
    जिससे मेरे शरीर में रोंगटे खड़े हो गये।
16 वह आत्मा चुपचाप ठहर गया
    किन्तु मैं नहीं जान सका कि वह क्या था।
मेरी आँखों के सामने एक आकृति खड़ी थी,
    और वहाँ सन्नाटा सा छाया था।
फिर मैंने एक बहुत ही शान्त ध्वनि सुनी।
17 “मनुष्य परमेश्वर से अधिक उचित नहीं हो सकता।
    अपने रचयिता से मनुष्य अधिक पवित्र नहीं हो सकता।
18 परमेश्वर अपने स्वर्गीय सेवकों तक पर भरोसा नहीं कर सकता।
    परमेश्वर को अपने दूतों तक में दोष मिल जातें हैं।
19 सो मनुष्य तो और भी अधिक गया गुजरा है।
    मनुष्य तो कच्चे मिट्टी के घरौंदों में रहते हैं।
इन मिट्टी के घरौंदों की नींव धूल में रखी गई हैं।
    इन लोगों को उससे भी अधिक आसानी से मसल कर मार दिया जाता है,
    जिस तरह भुनगों को मसल कर मारा जाता है।
20 लोग भोर से सांझ के बीच में मर जाते हैं किन्तु उन पर ध्यान तक कोई नहीं देता है।
    वे मर जाते हैं और सदा के लिये चले जाते हैं।
21 उनके तम्बूओं की रस्सियाँ उखाड़ दी जाती हैं,
    और ये लोग विवेक के बिना मर जाते हैं।”

“अय्यूब, यदि तू चाहे तो पुकार कर देख ले किन्तु तुझे कोई भी उत्तर नहीं देगा।
    तू किसी भी स्वर्गदूत की ओर मुड़ नहीं सकता है।
मूर्ख का क्रोध उसी को नष्ट कर देगा।
    मूर्ख की तीव्र भावनायें उसी को नष्ट कर डालेंगी।
मैंने एक मूर्ख को देखा जो सोचता था कि वह सुरक्षित है।
    किन्तु वह एकाएक मर गया।
ऐसे मूर्ख व्यक्ति की सन्तानों की कोई भी सहायता न कर सका।
    न्यायालय में उनको बचाने वाला कोई न था।
उसकी फसल को भूखे लोग खा गये, यहाँ तक कि वे भूखे लोग काँटों की झाड़ियों के बीच उगे अन्न कण को भी उठा ले गये।
    जो कुछ भी उसके पास था उसे लालची लोग उठा ले गये।
बुरा समय मिट्टी से नहीं निकलता है,
    न ही विपदा मैदानों में उगती है।
मनुष्य का जन्म दु:ख भोगने के लिये हुआ है।
    यह उतना ही सत्य है जितना सत्य है कि आग से चिंगारी ऊपर उठती है।
किन्तु अय्यूब, यदि तुम्हारी जगह मैं होता
    तो मैं परमेश्वर के पास जाकर अपना दुखड़ा कह डालता।
लोग उन अद्भुत भरी बातों को जिन्हें परमेश्वर करता है, नहीं समझते हैं।
    ऐसे उन अद्भुत कर्मो का जिसे परमेश्वर करता है, कोई अन्त नहीं है।
10 परमेश्वर धरती पर वर्षा को भेजता है,
    और वही खेतों में पानी पहुँचाया करता है।
11 परमेश्वर विनम्र लोगों को ऊपर उठाता है,
    और दु:खी जन को अति प्रसन्न बनाता है।
12 परमेश्वर चालाक व दुष्ट लोगों के कुचक्र को रोक देता है।
    इसलिये उनको सफलता नहीं मिला करती।
13 परमेश्वर चतुर को उसी की चतुराई भरी योजना में पकड़ता है।
    इसलिए उनके चतुराई भरी योजनाएं सफल नहीं होती।
14 वे चालाक लोग दिन के प्रकाश में भी ठोकरें खाते फिरते हैं।
    यहाँ तक कि दोपहर में भी वे रास्ते का अनुभव रात के जैसे करते हैं।
15 परमेश्वर दीन व्यक्ति को मृत्यु से बचाता है
    और उन्हें शक्तिशाली चतुर लोगों की शक्ति से बचाता है।
16 इसलिए दीन व्यक्ति को भरोसा है।
    परमेश्वर बुरे लोगों को नष्ट करेगा जो खरे नहीं हैं।

17 “वह मनुष्य भाग्यवान है, जिसका परमेश्वर सुधार करता है
    इसलिए जब सर्वशक्तिशाली परमेश्वर तुम्हें दण्ड दे रहा तो तुम अपना दु:खड़ा मत रोओ।
18 परमेश्वर उन घावों पर पट्टी बान्धता है जिन्हें उसने दिया है।
    वह चोट पहुँचाता है किन्तु उसके ही हाथ चंगा भी करते हैं।
19 वह तुझे छ: विपत्तियों से बचायेगा।
    हाँ! सातों विपत्तियों में तुझे कोई हानि न होगी।
20 अकाल के समय परमेश्वर
    तुझे मृत्यु से बचायेगा
और परमेश्वर युद्ध में
    तेरी मृत्यु से रक्षा करेगा।
21 जब लोग अपने कठोर शब्दों से तेरे लिये बुरी बात बोलेंगे,
    तब परमेश्वर तेरी रक्षा करेगा।
विनाश के समय
    तुझे डरने की आवश्यकता नहीं होगी।
22 विनाश और भुखमरी पर तू हँसेगा
    और तू जंगली जानवरों से कभी भयभीत न होगा।
23 तेरी वाचा परमेश्वर के साथ है यहाँ तक कि मैदानों की चट्टाने भी तेरा वाचा में भाग लेती है।
    जंगली पशु भी तेरे साथ शान्ति रखते हैं।
24 तू शान्ति से रहेगा
    क्योंकि तेरा तम्बू सुरक्षित है।
तू अपनी सम्पत्ति को सम्भालेगा
    और उसमें से कुछ भी खोया हुआ नहीं पायेगा।
25 तेरी बहुत सन्तानें होंगी और वे इतनी होंगी
    जितनी घास की पत्तियाँ पृथ्वी पर हैं।
26 तू उस पके गेहूँ जैसा होगा जो कटनी के समय तक पकता रहता है।
    हाँ, तू पूरी वृद्ध आयु तक जीवित रहेगा।

27 “अय्यूब, हमने ये बातें पढ़ी हैं और हम जानते हैं कि ये सच्ची है।
    अत: अय्यूब सुन और तू इन्हें स्वयं अपने आप जान।”

अय्यूब ने एलीपज को उत्तर देता है

फिर अय्यूब ने उत्तर देते हुए कहा,

“यदि मेरी पीड़ा को तौला जा सके
    और सभी वेदनाओं को तराजू में रख दिया जाये, तभी तुम मेरी व्यथा को समझ सकोगे।
मेरी व्यथा समुद्र की समूची रेत से भी अधिक भारी होंगी।
    इसलिये मेरे शब्द मूर्खतापूर्ण लगते हैं।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर के बाण मुझ में बिधे हैं और
    मेरा प्राण उन बाणों के विष को पिया करता है।
    परमेश्वर के वे भयानक शस्त्र मेरे विरुद्ध एक साथ रखी हुई हैं।
तेरे शब्द कहने के लिये आसान हैं जब कुछ भी बुरा नहीं घटित हुआ है।
यहाँ तक कि बनैला गधा भी नहीं रेंकता यदि उसके पास घास खाने को रहे
    और कोई भी गाय तब तक नहीं रम्भाती जब तक उस के पास चरने के लिये चारा है।
भोजन बिना नमक के बेस्वाद होता है
    और अण्डे की सफेदी में स्वाद नहीं आता है।
इस भोजन को छूने से मैं इन्कार करता हूँ।
    इस प्रकार का भोजन मुझे तंग कर डालता है।
मेरे लिये तुम्हारे शब्द ठीक उसी प्रकार के हैं।

“काश! मुझे वह मिल पाता जो मैंने माँगा है।
    काश! परमेश्वर मुझे दे देता जिसकी मुझे कामना है।
काश! परमेश्वर मुझे कुचल डालता
    और मुझे आगे बढ़ कर मार डालता।
10 यदि वह मुझे मारता है तो एक बात का चैन मुझे रहेगा,
    अपनी अनन्त पीड़ा में भी मुझे एक बात की प्रसन्नता रहेगा कि मैंने कभी भी अपने पवित्र के आदेशों पर चलने से इन्कार नहीं किया।

11 “मेरी शक्ति क्षीण हो चुकी है अत: जीते रहने की आशा मुझे नहीं है।
    मुझ को पता नहीं कि अंत में मेरे साथ क्या होगा इसलिये धीरज धरने का मेरे पास कोई कारण नहीं है।
12 मैं चट्टान की भाँति सुदृढ़ नहीं हूँ।
    न ही मेरा शरीर काँसे से रचा गया है।
13 अब तो मुझमें इतनी भी शक्ति नहीं कि मैं स्वयं को बचा लूँ।
    क्यों? क्योंकि मुझ से सफलता छीन ली गई है।

14 “क्योंकि वह जो अपने मित्रों के प्रति निष्ठा दिखाने से इन्कार करता है।
    वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर का भी अपमान करता है।
15 किन्तु मेरे बन्धुओं, तुम विश्वासयोग्य नहीं रहे।
    मैं तुम पर निर्भर नहीं रह सकता हूँ।
तुम ऐसी जलधाराओं के सामान हो जो कभी बहती है और कभी नहीं बहती है।
    तुम ऐसी जलधाराओं के समान हो जो उफनती रहती है।
16 जब वे बर्फ से और पिघलते हुए हिम सा रूँध जाती है।
17 और जब मौसम गर्म और सूखा होता है
    तब पानी बहना बन्द हो जाता है,
    और जलधाराऐं सूख जाती हैं।
18 व्यापारियों के दल मरुभूमि में अपनी राहों से भटक जाते हैं
    और वे लुप्त हो जाते हैं।
19 तेमा के व्यापारी दल जल को खोजते रहे
    और शबा के यात्री आशा के साथ देखते रहे।
20 वे आश्वत थे कि उन्हें जल मिलेगा
    किन्तु उन्हें निराशा मिली।
21 अब तुम उन जलधाराओं के समान हो।
    तुम मेरी यातनाओं को देखते हो और भयभीत हो।
22 क्या मैंने तुमसे सहायता माँगी? नहीं।
    किन्तु तुमने मुझे अपनी सम्मति स्वतंत्रता पूर्वक दी।
23 क्या मैंने तुमसे कहा कि शत्रुओं से मुझे बचा लो
    और क्रूर व्यक्तियों से मेरी रक्षा करो।

24 “अत: अब मुझे शिक्षा दो और मैं शान्त हो जाऊँगा।
    मुझे दिखा दो कि मैंने क्या बुरा किया है।
25 सच्चे शब्द सशक्त होते हैं
    किन्तु तुम्हारे तर्क कुछ भी नहीं सिद्ध करते।
26 क्या तुम मेरी आलोचना करने की योजनाऐं बनाते हो?
    क्या तुम इससे भी अधिक निराशापूर्ण शब्द बोलोगे?
27 यहाँ तक कि तुम जुऐ में उन बच्चों की वस्तुओं को छीनना चाहते हो,
    जिनके पिता नहीं हैं।
    तुम तो अपने निज मित्र को भी बेच डालोगे।
28 किन्तु अब मेरे मुख को पढ़ो।
    मैं तुमसे झूठ नहीं बोलूँगा।
29 अत:, अपने मन को अब परिवर्तित करो।
    अन्यायी मत बनो, फिर से जरा सोचो कि मैंने कोई बुरा काम नहीं किया है।
30 मैं झूठ नहीं कह रहा हूँ। मुझको भले
    और बुरे लोगों की पहचान है।”

अय्यूब ने कहा,

“मनुष्य को धरती पर कठिन संघर्ष करना पड़ता है।
    उसका जीवन भाड़े के श्रमिक के जीवन जैसा होता है।
मनुष्य उस भाड़े के श्रमिक जैसा है जो तपते हुए दिन में मेहनत करने के बाद शीतल छाया चाहता है
    और मजदूरी मिलने के दिन की बाट जोहता रहता है।
महीने दर महीने बेचैनी के गुजर गये हैं
    और पीड़ा भरी रात दर रात मुझे दे दी गई है।
जब मैं लेटता हूँ, मैं सोचा करता हूँ कि
    अभी और कितनी देर है मेरे उठने का?
यह रात घसीटती चली जा रही है।
    मैं छटपटाता और करवट बदलता हूँ, जब तक सूरज नहीं निकल आता।
मेरा शरीर कीड़ों और धूल से ढका हुआ है।
    मेरी त्वचा चिटक गई है और इसमें रिसते हुए फोड़े भर गये हैं।

“मेरे दिन जुलाहे की फिरकी से भी अधिक तीव्र गति से बीत रहें हैं।
    मेरे जीवन का अन्त बिना किसी आशा के हो रहा है।
हे परमेश्वर, याद रख, मेरा जीवन एक फूँक मात्र है।
    अब मेरी आँखें कुछ भी अच्छा नहीं देखेंगी।
अभी तू मुझको देख रहा है किन्तु फिर तू मुझको नहीं देख पायेगा।
    तू मुझको ढूँढेगा किन्तु तब तक मैं जा चुका होऊँगा।
एक बादल छुप जाता है और लुप्त हो जाता है।
    इसी प्रकार एक व्यक्ति जो मर जाता है और कब्र में गाड़ दिया जाता है, वह फिर वापस नहीं आता है।
10 वह अपने पुराने घर को वापस कभी भी नहीं लौटेगा।
    उसका घर उसको फिर कभी भी नहीं जानेगा।

11 “अत: मैं चुप नहीं रहूँगा। मैं सब कह डालूँगा।
    मेरी आत्मा दु:खित है और मेरा मन कटुता से भरा है,
    अत: मैं अपना दुखड़ा रोऊँगा।
12 हे परमेश्वर, तू मेरी रखवाली क्यों करता है?
    क्या मैं समुद्र हूँ, अथवा समुद्र का कोई दैत्य?
13 जब मुझ को लगता है कि मेरी खाट मुझे शान्ति देगी
    और मेरा पलंग मुझे विश्राम व चैन देगा।
14 हे परमेश्वर, तभी तू मुझे स्वप्न में डराता है,
    और तू दर्शन से मुझे घबरा देता है।
15 इसलिए जीवित रहने से अच्छा
    मुझे मर जाना ज्यादा पसन्द है।
16 मैं अपने जीवन से घृणा करता हूँ।
    मेरी आशा टूट चुकी है।
मैं सदैव जीवित रहना नहीं चाहता।
    मुझे अकेला छोड़ दे। मेरा जीवन व्यर्थ है।
17 हे परमेश्वर, मनुष्य तेरे लिये क्यों इतना महत्वपूर्ण है?
    क्यों तुझे उसका आदर करना चाहिये? क्यों मनुष्य पर तुझे इतना ध्यान देना चाहिये?
18 हर प्रात: क्यों तू मनुष्य के पास आता है
    और हर क्षण तू क्यों उसे परखा करता है?
19 हे परमेश्वर, तू मुझसे कभी भी दृष्टि नहीं फेरता है
    और मुझे एक क्षण के लिये भी अकेला नहीं छोड़ता है।
20 हे परमेश्वर, तू लोगों पर दृष्टि रखता है।
    यदि मैंने पाप किया, तब मैं क्या कर सकता हूँ
तूने मुझको क्यों निशाना बनाया है?
    क्या मैं तेरे लिये कोई समस्या बना हूँ?
21 क्यों तू मेरी गलतियों को क्षमा नहीं करता और मेरे पापों को
    क्यों तू माफ नहीं करता है?
मैं शीघ्र ही मर जाऊँगा और कब्र में चला जाऊँगा।
    जब तू मुझे ढूँढेगा किन्तु तब तक मैं जा चुका होऊँगा।”

1 कुरिन्थियों 14:18-40

18 मैं परमेश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि मैं तुम सब से बढ़कर विभिन्न भाषाएँ बोल सकता हूँ। 19 किन्तु कलीसिया सभा के बीच किसी दूसरी भाषा में दसियों हज़ार शब्द बोलने की अपेक्षा अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए बस पाँच शब्द बोलना अच्छा समझता हूँ ताकि दूसरों को भी शिक्षा दे सकूँ।

20 हे भाईयों, अपने विचारों में बचकाने मत रहो बल्कि बुराइयों के विषय में अबोध बच्चे जैसे बने रहो। किन्तु अपने चिन्तन में सयाने बनो। 21 जैसा कि शास्त्र कहता है:

“उनका उपयोग करते हुए
    जो अन्य बोली बोलते हैं,
उनके मुखों का उपयोग करते हुए जो पराए हैं।
मैं इनसे बात करूँगा,
    पर तब भी ये मेरी न सुनेंगे।”(A)

प्रभु ऐसा ही कहता है।

22 सो दूसरी भाषाएँ बोलने का वरदान अविश्वासियों के लिए संकेत है न कि विश्वासियों के लिये। जबकि परमेश्वर की ओर से बोलना अविश्वासियों के लिये नहीं, बल्कि विश्वासियों के लिये है। 23 सो यदि समूचा कलीसिया एकत्र हो और हर कोई दूसरी-दूसरी भाषाओं में बोल रहा हो तभी बाहर के लोग या अविश्वासी भीतर आ जायें तो क्या वे तुम्हें पागल नहीं कहेंगे। 24 किन्तु यदि हर कोई परमेश्वर की ओर से बोल रहा हो और तब तक कुछ अविश्वासी या बाहर के आ जाएँ तो क्या सब लोग उसे उसके पापों का बोध नहीं करा देंगे। सब लोग जो कह रहे हैं, उसी पर उसका न्याय होगा। 25 जब उसके मन के भीतर छिपे भेद खुल जायेंगे तब तक वह यह कहते हुए “सचमुच तुम्हारे बीच परमेश्वर है” दण्डवत प्रणाम करके परमेश्वर की उपासना करेगा।

तुम्हारी सभाएँ और कलीसिया

26 हे भाईयों, तो फिर क्या करना चाहिये? तुम जब इकट्ठे होते हो तो तुममें से कोई भजन, कोई उपदेश और कोई आध्यात्मिक रहस्य का उद्घाटन करता है। कोई किसी अन्य भाषा में बोलता है तो कोई उसकी व्याख्या करता है। ये सब बाते कलीसिया की आत्मिक सुदृढ़ता के लिये की जानी चाहिये। 27 यदि किसी अन्य भाषा में बोलना है तो अधिक से अधिक दो या तीन को ही बोलना चाहिये-बारी-बारी, एक-एक करके। और जो कुछ कहा गया है, एक को उसकी व्याख्या करनी चाहिये। 28 यदि वहाँ व्याख्या करने वाला कोई न हो तो बोलने वाले को चाहिये कि वह सभा में चुप ही रहे और फिर उसे अपने आप से और परमेश्वर से ही बातें करनी चाहिये।

29 परमेश्वर की ओर से उसके दूत के रूप में बोलने का जिन्हें वरदान मिला है, ऐसे दो या तीन व्यक्तियों को ही बोलना चाहिये और दूसरों को चाहिये कि जो कुछ उन्होंने कहा है, वे उसे परखते रहें। 30 यदि वहाँ किसी बैठे हुए पर किसी बात का रहस्य उद्घाटन होता है तो परमेश्वर की ओर से बोल रहे पहले वक्ता को चुप हो जाना चाहिये। 31 क्योंकि तुम एक-एक करके परमेश्वर की ओर से बोल सकते हो ताकि सभी लोग सीखेंऔरप्रोत्साहित हों। 32 नबियों की आत्माएँ नबियों के वश में रहती हैं। 33 क्योंकि परमेश्वर अव्यवस्था नहीं, शांति देता है। जैसा कि सन्तों की सभी कलीसियों में होता है।

34 स्त्रियों को चाहिये कि वे सभाओं में चुप रहें क्योंकि उन्हें बोलने की अनुमति नहीं है। बल्कि जैसा कि व्यवस्था के विधान में भी कहा गया है, उन्हे दब कर रहना चाहिये। 35 यदि वे कुछ जानना चाहती हैं तो उन्हें घर पर अपने-अपने पति से पूछना चाहिये क्योंकि एक स्त्री के लिये यह शोभा नहीं देता कि वह सभा में बोले।

36 क्या परमेश्वर का वचन तुमसे उत्पन्न हुआ? या वह मात्र तुम तक पहुँचा? निश्चित ही नहीं। 37 यदि कोई सोचता है कि वह नबी है अथवा उसे आध्यात्मिक वरदान प्राप्त है तो उसे पहचान लेना चाहिये कि मैं तुम्हें जो कुछ लिख रहा हूँ, वह प्रभु का आदेश है। 38 सो यदि कोई इसे नहीं पहचान पाता तो उसे भी नहीं पहचाना जायेगा।

39 इसलिए हे मेरे भाईयों, परमेश्वर की ओर से बोलने को तत्पर रहो तथा दूसरी भाषाओं में बोलने वालों को भी मत रोको। 40 किन्तु ये सभी बातें सही ढ़ंग से और व्यवस्थानुसार की जानी चाहियें।

भजन संहिता 37:30-40

30 भला मनुष्य तो खरी सलाह देता है।
    उसका न्याय सबके लिये निष्पक्ष होता है।
31 सज्जन के हृदय (मन) में यहोवा के उपदेश बसे हैं।
    वह सीधे मार्ग पर चलना नहीं छोड़ता।

32 किन्तु दुर्जन सज्जन को दु:ख पहुँचाने का रास्ता ढूँढता रहता है, और दुर्जन सज्जन को मारने का यत्न करते हैं।
33 किन्तु यहोवा दुर्जनों को मुक्त नहीं छोड़ेगा।
    वह सज्जन को अपराधी नहीं ठहरने देगा।
34 यहोवा की सहायता की बाट जोहते रहो।
    यहोवा का अनुसरण करते रहो। दुर्जन नष्ट होंगे। यहोवा तुझको महत्वपूर्ण बनायेगा।
    तू वह धरती पाएगा जिसे देने का यहोवा ने वचन दिया है।

35 मैंने दुष्ट को बलशाली देखा है।
    मैंने उसे मजबूत और स्वस्थ वृक्ष की तरह शक्तिशाली देखा।
36 किन्तु वे फिर मिट गए।
    मेरे ढूँढने पर उनका पता तक नहीं मिला।
37 सच्चे और खरे बनो,
    क्योंकि इसी से शांति मिलती है।
38 जो लोग व्यवस्था नियम तोड़ते हैं
    नष्ट किये जायेंगे।
39 यहोवा नेक मनुष्यों की रक्षा करता है।
    सज्जनों पर जब विपत्ति पड़ती है तब यहोवा उनकी शक्ति बन जाता है।
40 यहोवा नेक जनों को सहारा देता है, और उनकी रक्षा करता है।
    सज्जन यहोवा की शरण में आते हैं और यहोवा उनको दुर्जनों से बचा लेता है।

नीतिवचन 21:27

27 दुष्ट का चढ़ावा यूँ ही घृणापूर्ण होता है फिर कितना बुरा होगा जब वह उसे बुरे भाव से चढ़ावे।

Hindi Bible: Easy-to-Read Version (ERV-HI)

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