Beginning
नाज़रेथवासियों द्वारा विश्वास करने से इनकार
(मत्ति 13:53-58)
6 मसीह येशु वहाँ से अपने गृहनगर आए. उनके शिष्य उनके साथ थे. 2 शब्बाथ पर वह यहूदी सभागृह में शिक्षा देने लगे. उसे सुन उनमें से अनेक चकित हो कहने लगे, “कहाँ से प्राप्त हुआ इसे यह सब? कहाँ से प्राप्त हुआ है इसे यह बुद्धि-कौशल और यह अद्भुत काम करने की क्षमता? 3 क्या यह वही बढ़ई नहीं? क्या यह मरियम का पुत्र तथा याक़ोब, योसेस, यहूदाह तथा शिमोन का भाई नहीं? क्या उसी की बहनें हमारे मध्य नहीं हैं?” इस पर उन्होंने मसीह येशु को अस्वीकार कर दिया.
4 मसीह येशु ने उनसे कहा, “भविष्यद्वक्ता हर जगह सम्मानित होता है सिवाय अपने स्वयं के नगर में, अपने सम्बन्धियों तथा परिवार के मध्य.” 5 कुछ रोगियों पर हाथ रख उन्हें स्वस्थ करने के अतिरिक्त मसीह येशु वहाँ कोई अन्य अद्भुत काम न कर सके. 6 मसीह येशु को उनके अविश्वास पर बहुत ही आश्चर्य हुआ.
आयोग पर बारह शिष्यों का भेजा जाना
(मत्ति 10:1-15; लूकॉ 9:1-6)
मसीह येशु नगर-नगर जा कर शिक्षा देते रहे. 7 उन्होंने उन बारहों को बुलाया और उन्हें प्रेतों[a] पर अधिकार देते हुए उन्हें दो-दो करके भेज दिया.
8 मसीह येशु ने उन्हें आदेश दिए, “इस यात्रा में छड़ी के अतिरिक्त अपने साथ कुछ न ले जाना—न भोजन, न झोली और न पैसा. 9 हाँ, चप्पल तो पहन सकते हो किन्तु अतिरिक्त बाहरी वस्त्र नहीं.” 10 आगे उन्होंने कहा, “जिस घर में भी तुम ठहरो उस नगर से विदा होने तक वहीं रहना. 11 जहाँ कहीं तुम्हें स्वीकार न किया जाए या तुम्हारा प्रवचन न सुना जाए, वह स्थान छोड़ते हुए अपने पैरों की धूल वहीं झाड़ देना कि यह उनके विरुद्ध प्रमाण हो.”
12 शिष्यों ने प्रस्थान किया. वे यह प्रचार करने लगे कि पश्चाताप सभी के लिए ज़रूरी है. 13 उन्होंने अनेक दुष्टात्माएं निकाली तथा अनेक रोगियों को तेल मलकर उन्हें स्वस्थ किया.
मसीह येशु और हेरोदेस
14 राजा हेरोदेस तक इसका समाचार पहुँच गया क्योंकि मसीह येशु की ख्याति दूर दूर तक फैल गयी थी. कुछ तो यहाँ तक कह रहे थे, “बपतिस्मा देने वाले योहन मरे हुओं में से जीवित हो गए हैं. यही कारण है कि मसीह येशु में यह अद्भुत सामर्थ्य प्रकट है.”
15 कुछ कह रहे थे, “वह एलियाह हैं.”
कुछ यह भी कहते सुने गए, “वह एक भविष्यद्वक्ता हैं—अतीत में हुए भविष्यद्वक्ताओं के समान.”
16 यह सब सुन कर हेरोदेस कहता रहा, “योहन, जिसका मैंने वध करवाया था, जीवित हो गया है.”
17-18 स्वयं हेरोदेस ने योहन को बन्दी बना कर कारागार में डाल दिया था क्योंकि उसने अपने भाई फ़िलिप्पॉस की पत्नी हेरोदीअस से विवाह कर लिया था. योहन हेरोदेस को याद दिलाते रहते थे, “तुम्हारे लिए अपने भाई की पत्नी को रख लेना व्यवस्था के अनुसार नहीं है.” इसलिए 19 हेरोदीअस के मन में योहन के लिए शत्रुभाव पनप रहा था. वह उनका वध करवाना चाहती थी किन्तु उससे कुछ नहीं हो पा रहा था. 20 हेरोदेस योहन से डरता था क्योंकि वह जानता था कि योहन एक धर्मी और पवित्र व्यक्ति हैं. हेरोदेस ने योहन को सुरक्षित रखा था. योहन के प्रवचन सुन कर वह घबराता तो था फिर भी उसे उनके प्रवचन सुनना बहुत प्रिय था.
21 आखिरकार हेरोदीअस को वह मौका प्राप्त हो ही गया: अपने जन्मदिवस के उपलक्ष्य में हेरोदेस ने अपने सभी उच्च अधिकारियों, सेनापतियों और गलील प्रदेश के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को भोज पर आमन्त्रित किया. 22 इस अवसर पर हेरोदीअस की पुत्री ने वहाँ अपने नृत्य के द्वारा हेरोदेस और अतिथियों को मोह लिया. राजा ने पुत्री से कहा, “मुझसे चाहे जो माँग लो, मैं दूँगा.” 23 राजा ने सौगन्ध खाते हुए कहा, “तुम जो कुछ माँगोगी, मैं तुम्हें दूँगा—चाहे वह मेरा आधा राज्य ही क्यों न हो.” 24 अपनी माँ के पास जा कर उसने पूछा.
“क्या माँगूँ?” “बपतिस्मा देने वाले योहन का सिर,” उसने कहा.
25 पुत्री ने तुरन्त जा कर राजा से कहा, “मैं चाहती हूँ कि आप मुझे इसी समय एक बर्तन में बपतिस्मा देने वाले योहन का सिर ला कर दें.”
26 हालांकि राजा को इससे गहरा दुःख तो हुआ किन्तु आमन्त्रित अतिथियों के सामने ली गई अपनी सौगन्ध के कारण वह अस्वीकार न कर सका. 27 तत्काल राजा ने एक जल्लाद को बुलवाया और योहन का सिर ले आने की आज्ञा दी. वह गया, कारागार में योहन का वध किया 28 और उनका सिर एक बर्तन में रख कर पुत्री को सौंप दिया और उसने जा कर अपनी माता को सौंप दिया. 29 जब योहन के शिष्यों को इसका समाचार प्राप्त हुआ, वे आए और योहन के शव को ले जा कर एक क़ब्र में रख दिया.
30 प्रेरित लौट कर मसीह येशु के पास आए और उन्हें अपने द्वारा किए गए कामों और दी गई शिक्षा का विवरण दिया. 31 मसीह येशु ने उनसे कहा, “आओ, कुछ समय के लिए कहीं एकान्त में चलें और विश्राम करें,” क्योंकि अनेक लोग आ-जा रहे थे और उन्हें भोजन तक का अवसर प्राप्त न हो सका था. 32 वे चुपचाप नाव पर सवार हो एक सुनसान जगह पर चले गए.
33 लोगों ने उन्हें वहाँ जाते हुए देख लिया. अनेकों ने यह भी पहचान लिया कि वे कौन थे. आस-पास के नगरों से अनेक लोग दौड़ते हुए उनसे पहले ही उस स्थान पर जा पहुँचे. 34 जब मसीह येशु तट पर पहुँचे, उन्होंने वहाँ एक बड़ी भीड़ को इकट्ठा देखा. उसे देख वह दुःखी हो उठे क्योंकि उन्हें भीड़ बिना चरवाहे की भेड़ों के समान लगी. वहाँ मसीह येशु उन्हें अनेक विषयों पर शिक्षा देने लगे.
35 दिन ढल रहा था. शिष्यों ने मसीह येशु के पास आ कर उनसे कहा, “यह सुनसान जगह है और दिन ढला जा रहा है. 36 अब आप इन्हें विदा कर दीजिए कि ये पास के गाँवों में जा कर अपने लिए भोजन-व्यवस्था कर सकें.”
37 किन्तु मसीह येशु ने उन्हीं से कहा, “तुम ही दो इन्हें भोजन!”
शिष्यों ने इसके उत्तर में कहा, “इतनों के भोजन में कम से कम दो सौ दीनार लगेंगे. क्या आप चाहते हैं कि हम जा कर इनके लिए इतने का भोजन ले आएँ?”
38 “मसीह येशु ने उनसे पूछा,” “कितनी रोटियां हैं यहाँ?”
“जाओ, पता लगाओ!” उन्होंने पता लगा कर उत्तर दिया, “पाँच—और इनके अलावा दो मछलियां भी.”
39 मसीह येशु ने सभी लोगों को झुण्ड़ों में हरी घास पर बैठ जाने की आज्ञा दी. 40 वे सभी सौ-सौ और पचास-पचास के झुण्ड़ों में बैठ गए. 41 मसीह येशु ने वे पाँच रोटियां और दो मछलियां ले कर स्वर्ग की ओर आँखें उठा कर उनके लिए धन्यवाद प्रकट किया. तब वह रोटियां तोड़ते और शिष्यों को देते गए कि वे उन्हें भीड़ में बाँटते जाएँ. इसके साथ उन्होंने वे दो मछलियां भी उनमें बांट दीं. 42 उन सभी ने खाया और तृप्त हो गए. 43 शिष्यों ने जब तोड़ी गई रोटियों तथा मछलियों के शेष भाग इकट्ठा किए तो उनसे बारह टोकरे भर गए. 44 जिन्होंने भोजन किया था, उनमें से पुरुष ही पाँच हज़ार थे.
मसीह येशु का पानी के ऊपर चलना
(मत्ति 14:22-33; योहन 6:16-21)
45 तुरन्त ही मसीह येशु ने शिष्यों को ज़बरन नाव पर बैठा उन्हें अपने से पहले दूसरे किनारे पर स्थित नगर बैथसैदा पहुँचने के लिए विदा किया—वह स्वयं भीड़ को विदा कर रहे थे. 46 उन्हें विदा करने के बाद वह प्रार्थना के लिए पर्वत पर चले गए.
47 सन्ध्या हो चुकी थी. नाव झील के मध्य में थी. मसीह येशु किनारे पर अकेले थे. 48 मसीह येशु देख रहे थे कि हवा उल्टी दिशा में चलने के कारण शिष्यों को नाव खेने में कठिन प्रयास करना पड़ रहा था. रात के चौथे प्रहर मसीह येशु झील की सतह पर चलते हुए उनके पास जा पहुँचे और ऐसा अहसास हुआ कि वह उनसे आगे निकलना चाह रहे थे. 49 उन्हें जल-सतह पर चलता देख शिष्य समझे कि कोई प्रेत है और वे चिल्ला उठे 50 क्योंकि उन्हें देख वे भयभीत हो गए थे.
इस पर मसीह येशु ने कहा, “मैं हूँ! मत डरो! साहस मत छोड़ो!” 51 यह कहते हुए वह उनकी नाव में चढ़ गए और वायु थम गई. शिष्य इससे अत्यन्त चकित रह गए. 52 रोटियों की घटना अब तक उनकी समझ से परे थी. उनके हृदय निर्बुद्धि जैसे हो गए थे.
53 झील पार कर वे गन्नेसरत प्रदेश में पहुँच गए. उन्होंने नाव वहीं लगा दी. 54 मसीह येशु के नाव से उतरते ही लोगों ने उन्हें पहचान लिया. 55 जहाँ कहीं भी मसीह येशु होते थे, लोग दौड़-दौड़ कर बिछौनों पर रोगियों को वहाँ ले आते थे. 56 मसीह येशु जिस किसी नगर, गाँव या बाहरी क्षेत्र में प्रवेश करते थे, लोग रोगियों को सार्वजनिक स्थलों में लिटा कर उनसे विनती करते थे कि उन्हें उनके वस्त्र के छोर का स्पर्श मात्र ही कर लेने दें. जो कोई उनके वस्त्र का स्पर्श कर लेता था, स्वस्थ हो जाता था.
अन्दरूनी शुद्धता की शिक्षा
(मत्ति 15:1-20)
7 येरूशालेम नगर से फ़रीसियों तथा कुछ शास्त्रियों ने आ कर मसीह येशु को घेर लिया. 2 उन्होंने देखा कि मसीह येशु के कुछ शिष्य सांस्कारिक रूप से अशुद्ध हाथों से (बिना धोए हुए हाथों से) भोजन कर रहे हैं. 3 फ़रीसी और सभी यहूदी हाथों को भली-भांति धोए बिना भोजन नहीं करते. ऐसा करते हुए वे पूर्वजों से चली आ रही प्रथाओं का पालन करते थे. 4 हाट से लौटने पर वे स्वयं को पारम्परिक रीति से शुद्ध किए बिना भोजन नहीं करते थे. वे चली आ रही अन्य अनेक प्रथाओं का पालन करते चले आए थे जैसे, कटोरों, घड़ों तथा पकाने के ताँबे के बर्तनों का धोना.
5 फ़रीसियों तथा शास्त्रियों ने मसीह येशु से प्रश्न किया, “तुम्हारे शिष्य पूर्वजों से चली आ रही प्रथाओं का पालन क्यों नहीं करते? वे अशुद्ध हाथों से भोजन करते हैं.”
6 मसीह येशु ने उन्हें उत्तर दिया, “आप पाखण्डियों के लिए भविष्यद्वक्ता यशायाह की यह भविष्यवाणी ठीक ही है:
“‘ये लोग मात्र ओंठों से मेरा सम्मान करते हैं,
किन्तु उनका हृदय मुझसे अत्यन्त दूर है.
7 मेरे प्रति उनकी उपासना व्यर्थ है.
उनकी शिक्षाएं मात्र मनुष्य के मस्तिष्क की उपज हैं.’
8 आप लोग मनुष्यों की परम्पराओं का तो पालन करते जाते हैं किन्तु परमेश्वर की आज्ञा को टालते जाते हैं.”
9 मसीह येशु ने उनसे यह भी कहा, “आप लोग कितनी सुविधापूर्वक परम्पराओं का पालन करने के लिए परमेश्वर की आज्ञा को टाल देते हैं! 10 मोशेह की आज्ञा है, ‘अपने माता और पिता का सम्मान करो,’ तथा ‘उसे, जो अपने माता या पिता के विषय में बुरा कहे, मृत्युदण्ड दिया जाए.’ 11 किन्तु आपका कहना है, ‘यदि कोई व्यक्ति अपने पिता या माता से इस प्रकार कहे, “मेरी सम्पत्ति में से जो कुछ आपकी सहायता के लिए उपलब्ध हो सकता था, वह कोरबान है अर्थात् परमेश्वर को समर्पित”;’ 12 इसके द्वारा आप उसे अपने पिता और अपनी माता के लिए कुछ भी करने नहीं देते. 13 अपनी इस प्रथा के द्वारा, जो पूर्वजों से चली आई है, आप परमेश्वर के वचन को टाल देते हैं. आप ऐसे ही अनेक काम किया करते हैं.”
14 इसके बाद मसीह येशु ने भीड़ को दोबारा अपने पास बुला कर उसे सम्बोधित करते हुए कहा, “तुम सब मेरी सुनो और समझो: 15 ऐसी कोई वस्तु नहीं, जो मनुष्य में बाहर से प्रवेश कर उसे अशुद्ध कर सके. मनुष्य को अशुद्ध तो वह करता है, जो उसमें से बाहर आता है. 16 जिसके सुनने के कान हों, वह सुन ले.”
17 जब भीड़ से विदा ले वह घर में आ गए, उनके शिष्यों ने उनसे इस दृष्टान्त के विषय में प्रश्न किया. 18 इसके उत्तर में मसीह येशु ने कहा, “क्या तुम में भी बुद्धि का इतना अभाव है? क्या तुम्हें समझ नहीं आया कि जो कुछ मनुष्य में बाहर से प्रवेश करता है, उसे अशुद्ध नहीं कर सकता 19 क्योंकि वह उसके हृदय में नहीं परन्तु उसके आमाशय में जाता है और बाहर निकल जाता है!”—इस प्रकार मसीह येशु ने सभी प्रकार के भोजन को स्वच्छ घोषित कर दिया.
20 “जो मनुष्य में से बाहर आता है, वही मनुष्य को अशुद्ध करता है. 21 मनुष्य के भीतर से—मनुष्य के हृदय ही से—बुरे विचार बाहर आते हैं, जो उसे चोरी, हत्या, व्यभिचार, 22 लोभ, दुराचारिता, छल-कपट, कामुकता, जलन, निन्दा, अहंकार तथा मूर्खता की ओर लगा देते हैं. 23 ये सभी अवगुण मनुष्य के अन्तर से बाहर आते तथा उसे अशुद्ध करते हैं.”
कनानवासी स्त्री का सराहनीय विश्वास
(मत्ति 15:21-28)
24 मसीह येशु वहाँ से निकल कर त्सोर प्रदेश में चले गए, जहाँ वह एक घर में ठहरे हुए थे और नहीं चाहते थे कि भीड़ को उनके विषय में कुछ मालूम हो किन्तु उनका वहाँ आना छिप न सका. 25 उनके विषय में सुन कर एक स्त्री उनसे भेंट करने वहाँ आई जिसकी पुत्री प्रेतात्मा से पीड़ित थी. वहाँ प्रवेश करते ही वह मसीह येशु के चरणों पर जा गिरी. 26 वह स्त्री यूनानी थी—सुरोफ़ॉयनिकी जाति की. वह मसीह येशु से विनती करती रही कि वह उसकी पुत्री में से प्रेत को निकाल दें.
27 मसीह येशु ने उससे कहा, “पहले बालकों को तो तृप्त हो जाने दो! उन्हें परोसा भोजन उनसे ले कर कुत्तों को देना सही नहीं!”
28 किन्तु इसके उत्तर में उस स्त्री ने कहा, “सच है प्रभु, किन्तु कुत्ते भी तो बालकों की मेज़ पर से गिरे हुए चूर-चार को ही खाते हैं.”
29 मसीह येशु ने उससे कहा, “तुम्हारे इस उत्तर का परिणाम यह है कि दुष्टात्मा तुम्हारी पुत्री को छोड़ कर जा चुकी है. घर लौट जाओ.”
30 घर पहुँच कर उसने अपनी पुत्री को बिछौने पर लेटा हुआ पाया. दुष्टात्मा उसे छोड़ कर जा चुकी थी.
झील के तट पर चंगाई
(मत्ति 15:29-31)
31 तब वह त्सोर के क्षेत्र से निकल कर त्सीदोन क्षेत्र से होते हुए गलील झील के पास आए, जो देकापोलिस अंचल में था. 32 लोग उनके पास एक ऐसे व्यक्ति को लाए जो बहिरा था तथा बड़ी कठिनाई से बोल पाता था. लोगों ने मसीह येशु से उस व्यक्ति पर हाथ रखने की विनती की.
33 मसीह येशु उस व्यक्ति को भीड़ से दूर एकान्त में ले गए. वहाँ उन्होंने उसके कानों में अपनी उँगलियां डालीं. इसके बाद अपनी लार उसकी जीभ पर लगाई. 34 तब एक गहरी आह भरते हुए स्वर्ग की ओर दृष्टि उठा कर उन्होंने उस व्यक्ति को सम्बोधित कर कहा, “एफ़्फ़ाथा!” अर्थात् खुल जा! 35 उस व्यक्ति के कान खुल गए, उसकी जीभ की रुकावट भी जाती रही और वह सामान्य रूप से बातें करने लगा.
36 मसीह येशु ने लोगों को आज्ञा दी कि वे इसके विषय में किसी से न कहें किन्तु मसीह येशु जितना रोकते थे, वे उतना ही अधिक प्रचार करते जाते थे. 37 लोग आश्चर्य से भरकर कहा करते थे, “वह जो कुछ करते हैं, भला ही करते हैं—यहाँ तक कि वह बहिरे को सुनने की तथा गूंगे को बोलने की शक्ति प्रदान कर रहे हैं.”
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