Book of Common Prayer
सच्चा प्रेम
7 प्रियजन, हम में आपस में प्रेम रहे: प्रेम परमेश्वर से उत्पन्न हुआ है. हर एक, जिसमें प्रेम है, परमेश्वर से जन्मा है तथा उन्हें जानता है. 8 वह जिसमें प्रेम नहीं, परमेश्वर से अनजान है क्योंकि परमेश्वर प्रेम हैं. 9 हम में परमेश्वर का प्रेम इस प्रकार प्रकट हुआ: परमेश्वर ने अपने एकलौते पुत्र को संसार में भेजा कि हम उनके द्वारा जीवन प्राप्त करें. 10 प्रेम वस्तुत: यह है: परमेश्वर ने हमारे प्रति अपने प्रेम के कारण अपने पुत्र को हमारे पापों के लिए प्रायश्चित-बलि होने के लिए भेज दिया—यह नहीं कि हमने परमेश्वर से प्रेम किया है. 11 प्रियजन, यदि हमारे प्रति परमेश्वर का प्रेम इतना अधिक है तो सही है कि हम में भी आपस में प्रेम हो. 12 परमेश्वर को किसी ने कभी नहीं देखा. यदि हम में आपस में प्रेम है तो हमारे भीतर परमेश्वर का वास है तथा उनके प्रेम ने हम में पूरी सिद्धता प्राप्त कर ली है.
13 हमें यह अहसास होता है कि हमारा उनमें और उनका हम में वास है क्योंकि उन्होंने हमें अपना आत्मा दिया है. 14 हमने यह देखा है और हम इसके गवाह हैं कि पिता ने पुत्र को संसार का उद्धारकर्ता होने के लिए भेज दिया. 15 जो कोई यह स्वीकार करता है कि मसीह येशु परमेश्वर-पुत्र हैं, परमेश्वर का उसमें और उसका परमेश्वर में वास है. 16 हमने अपने प्रति परमेश्वर के प्रेम को जान लिया और उसमें विश्वास किया है. परमेश्वर प्रेम हैं. वह, जो प्रेम में स्थिर है, परमेश्वर में बना रहता है तथा स्वयं परमेश्वर उसमें बना रहता हैं. 17 तब हमें न्याय के दिन के सन्दर्भ में निर्भयता प्राप्त हो जाती है क्योंकि संसार में हमारा स्वभाव मसीह के स्वभाव के समान हो गया है, परिणामस्वरूप हमारा आपसी प्रेम सिद्धता की स्थिति में पहुँच जाता है.
18 इस प्रेम में भय का कोई भाग नहीं होता क्योंकि सिद्ध प्रेम भय को निकाल फेंकता है. भय का सम्बन्ध दण्ड से है और उसने, जो भयभीत है प्रेम में यथार्थ सम्पन्नता प्राप्त नहीं की.
19 हम में प्रेमभाव इसलिए है कि पहले उन्होंने हमसे प्रेम किया है. 20 यदि कोई दावा करे, “मैं परमेश्वर से प्रेम करता हूँ” परन्तु साथी विश्वासी से घृणा करे, वह झूठा है, क्योंकि जिसने साथी विश्वासी को देखा है और उससे प्रेम नहीं करता तो वह परमेश्वर से, जिन्हें उसने देखा ही नहीं, प्रेम कर ही नहीं सकता, 21 यह आज्ञा हमें उन्हीं से प्राप्त हुई है कि वह, जो परमेश्वर से प्रेम करता है, साथी विश्वासी से भी प्रेम करे.
मसीह येशु की अधिकारपूर्ण शिक्षा
(मारक 1:21-28)
31 वहाँ से वह गलील प्रदेश के कफ़रनहूम नामक नगर में आए और शब्बाथ पर लोगों को शिक्षा देने लगे. 32 मसीह येशु की शिक्षा उनके लिए आश्चर्य का विषय थी क्योंकि उनका सन्देश अधिकारपूर्ण होता था.
33 सभागृह में एक प्रेतात्मा से पीड़ित व्यक्ति था. वह ऊँचे शब्द में बोल उठा, 34 “ओ नाज़रेथ के येशु! हमारा और तुम्हारा एक दूसरे से क्या लेना-देना? क्या तुम हमें नाश करने आए हो? हम सब जानते हैं कि तुम कौन हो—परमेश्वर के पवित्र जन.”
35 “चुप!” मसीह येशु ने कड़े शब्द में कहा, “उसमें से बाहर निकल आ!” प्रेत ने उस व्यक्ति को उन सबके सामने भूमि पर पटक दिया और उस व्यक्ति की हानि किए बिना उसमें से निकल गया.
36 यह देख वे सभी चकित रह गए और आपस में कहने लगे, “विलक्षण है यह सन्देश! यह बड़े अधिकार तथा सामर्थ्य के साथ प्रेतों को आज्ञा देता है और वे मनुष्यों में से बाहर आ जाते हैं!” 37 उनके विषय में यह वर्णन आस-पास के सभी क्षेत्रों में फैल गया.
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