Book of Common Prayer
शिष्य व्यवस्था से नहीं मसीह से जुड़े हैं
7 प्रियजन, तुम्हें, जो व्यवस्था से परिचित हो, क्या यह मालूम नहीं कि किसी भी व्यक्ति पर व्यवस्था की प्रभुता उसी समय तक रहती है जब तक वह जीवित है? 2 कानूनी तौर पर विवाहित स्त्री अपने पति से उसी समय तक बंधी रहती है जब तक उसका पति जीवित है किन्तु पति की मृत्यु होने पर वह कानूनी रूप से अपने पति से मुक्त हो जाती है. 3 यदि अपने पति के जीवित रहते हुए वह किसी अन्य पुरुष से संबंध बनाती है तो वह व्यभिचारिणी कहलाती है किन्तु अपने पति की मृत्यु के बाद वह कानूनी रूप से स्वतंत्र हो जाती है और अन्य पुरुष से विवाह करने पर व्यभिचारिणी नहीं कहलाती.
4 इसलिए मेरे प्रियजन, तुम भी मसीह के शरीर के द्वारा व्यवस्था के प्रति मरे हुए हो कि तुम अन्य से जुड़ जाओ—उनसे, जो मरे हुओं में से जीवित किए गए कि परमेश्वर के लिए हमारा जीवन फलदायी हो. 5 जिस समय हम पाप के स्वभाव द्वारा नियंत्रित थे, पाप की लालसायें, जो व्यवस्था द्वारा उत्तेजित की जाती थी, मृत्यु के फल के लिए हमारे अंगों में सक्रिय थी, 6 किन्तु अब हम उस के प्रति मरे सरीखे होकर, जिसने हमें बाँध रखा था, व्यवस्था से स्वतंत्र कर दिए गए हैं कि हम व्यवस्था द्वारा स्थापित पुरानी रीति पर नहीं परन्तु पवित्रात्मा द्वारा एक नई रीति में सेवा करने लग जाएँ.
व्यवस्था का उद्देश्य
7 तब क्या इससे यह सिद्ध होता है कि व्यवस्था दोषी है? नहीं! बिलकुल नहीं! इसके विपरीत, व्यवस्था के बिना मेरे लिए पाप को पहचानना ही असम्भव होता. मुझे लोभ के विषय में ज्ञान ही न होता यदि व्यवस्था यह आज्ञा न देता: लोभ मत करो. 8 पाप ने ही आज्ञा के माध्यम से अच्छा अवसर मिलने पर मुझमें हर एक प्रकार का लालच उत्पन्न कर दिया. यही कारण है कि व्यवस्था के बिना पाप मृत है. 9 एक समय था जब मैं व्यवस्था से स्वतंत्र अवस्था में जीवित था किन्तु जब आज्ञा का आगमन हुआ, पाप जीवित हुआ 10 और मेरी मृत्यु हो गई, और वह आज्ञा जिससे मुझे जीवित होना था, मेरी मृत्यु का कारण बनी 11 क्योंकि पाप ने, आज्ञा में के अवसर का लाभ उठाते हुए मुझे भटका दिया और इसी के माध्यम से मेरी हत्या भी कर दी. 12 इसलिए व्यवस्था पवित्र है और आज्ञा पवित्र, धर्मी और भली है.
येशु के अधिकार को चुनौती
(मारक 11:27-33; लूकॉ 20:1-8)
23 येशु ने मन्दिर में प्रवेश किया और जब वह वहाँ शिक्षा दे ही रहे थे, प्रधान याजक और पुरनिए उनके पास आए और उनसे पूछा, “किस अधिकार से तुम ये सब कर रहे हो? कौन है वह, जिसने तुम्हें इसका अधिकार दिया है?”
24 येशु ने इसके उत्तर में कहा, “मैं भी आप से एक प्रश्न करूँगा. यदि आप मुझे उसका उत्तर देंगे तो मैं भी आपके इस प्रश्न का उत्तर दूँगा कि मैं किस अधिकार से यह सब करता हूँ: 25 योहन का बपतिस्मा किसकी ओर से था—स्वर्ग की ओर से या मनुष्यों की ओर से?”
इस पर वे आपस में विचार-विमर्श करने लगे, “यदि हम कहते हैं, ‘स्वर्ग की ओर से’, तो वह हम से कहेगा, ‘तब आपने योहन में विश्वास क्यों नहीं किया?’ 26 किन्तु यदि हम कहते हैं, ‘मनुष्यों की ओर से’, तब हमें भीड़ से भय है; क्योंकि सभी योहन को भविष्यद्वक्ता मानते हैं.”
27 उन्होंने आ कर येशु से कहा, “आपके प्रश्न का उत्तर हमें मालूम नहीं.”
येशु ने भी उन्हें उत्तर दिया, “मैं भी आपको नहीं बताऊँगा कि मैं किस अधिकार से ये सब करता हूँ.
दो पुत्रों का दृष्टान्त
28 “इस विषय में क्या विचार है आपका? एक व्यक्ति के दो पुत्र थे. उसने बड़े पुत्र से कहा, ‘हे पुत्र, आज जा कर दाख की बारी का काम देख लेना.’
29 “उसने पिता को उत्तर दिया, ‘मेरे लिए यह सम्भव नहीं होगा.’ परन्तु कुछ समय के बाद उसे अपने उत्तर पर पछतावा हुआ और वह दाख की बारी चला गया.
30 “पिता दूसरे पुत्र के पास गया और उससे भी यही कहा. उसने उत्तर दिया, ‘जी हाँ, अवश्य.’ किन्तु वह गया नहीं.
31 “यह बताइए कि किस पुत्र ने अपने पिता की इच्छा पूरी की?”
उन्होंने उत्तर दिया.
“बड़े पुत्र ने.” येशु ने उनसे कहा, “सच यह है कि समाज से निकाले लोग तथा वेश्याएँ आप लोगों से पहले परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर जाएँगे. 32 बपतिस्मा देने वाले योहन आपको धर्म का मार्ग दिखाते हुए आए किन्तु आप लोगों ने उनका विश्वास ही न किया किन्तु समाज के बहिष्कृतों और वेश्याओं ने उनका विश्वास किया. यह सब देखने पर भी आपने उनमें विश्वास के लिए पश्चाताप न किया.
New Testament, Saral Hindi Bible (नए करार, सरल हिन्दी बाइबल) Copyright © 1978, 2009, 2016 by Biblica, Inc.® All rights reserved worldwide.