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कि यदि तू अपने मुँह से कहे, “यीशु मसीह प्रभु है,” और तू अपने मन में यह विश्वास करे कि परमेश्वर ने उसे मरे हुओं में से जीवित किया तो तेरा उद्धार हो जायेगा। 10 क्योंकि अपने हृदय के विश्वास से व्यक्ति धार्मिक ठहराया जाता है और अपने मुँह से उसके विश्वास को स्वीकार करने से उसका उद्धार होता है।

11 शास्त्र कहता है: “जो कोई उसमें विश्वास रखता है उसे निराश नहीं होना पड़ेगा।”(A) 12 यह इसलिए है कि यहूदियों और ग़ैर यहूदियों में कोई भेद नहीं क्योंकि सब का प्रभु तो एक ही है। और उसकी दया उन सब के लिए, जो उसका नाम लेते है, अपरम्पार है। 13 “हर कोई जो प्रभु का नाम लेता है, उद्धार पायेगा।”(B)

14 किन्तु वे जो उसमें विश्वास नहीं करते, उसका नाम कैसे पुकारेंगे? और वे जिन्होंने उसके बारे में सुना ही नहीं, उसमें विश्वास कैसे कर पायेंगे? और फिर भला जब तक कोई उन्हें उपदेश देने वाला न हो, वे कैसे सुन सकेंगे? 15 और उपदेशक तब तक उपदेश कैसे दे पायेंगे जब तक उन्हें भेजा न गया हो? जैसा कि शास्त्रों में कहा है: “सुसमाचार लाने वालों के चरण कितने सुन्दर हैं।”(C)

16 किन्तु सब ने सुसमाचार को स्वीकारा नहीं। यशायाह कहता है, “हे प्रभु, हमारे उपदेश को किसने स्वीकार किया?”(D) 17 सो उपदेश के सुनने से विश्वास उपजता है और उपदेश तब सुना जाता है जब कोई मसीह के विषय में उपदेश देता है।

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